पैतृक व्यवसाय की ओर वे कदाचित् कभी भी आकृष्ट नहीं हुए और बचपन से ही साधुसेवा एवं सत्संग में ही अपना समय बिताते रहे। संत बिसोवा खेचर को उन्होंने अपना गुरु स्वीकार किया था और प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर के प्रति भी वे गहरी निष्ठा रखते थे। ज्ञानेश्वर के साथ उन्होंने देश भ्रमण किया था और कई अन्य संतों से भी परिचय प्राप्त किया था। कहा जाता है कि ज्ञानेश्वर के मरणोपरांत वे उत्तरी भारत के पंजाब प्रांत में रहने लगे थे और वहीं पर उन्होंने अपने मत के प्रचार का केंद्र बना लिया था। इनके अनेक चमत्कारों की कथाएं प्रसिद्ध हैं और कुछ की चर्चा इनकी रचनाओं में भी की गई मिलती है। इनकी मृत्यु का समय सं॰ १४०७ कहा गया है।
संत नामदेव एक सरल हृदय के व्यक्ति थे और उनकी भावुकता का परिचय उनकी पंक्तियों में भी सर्वत्र मिलता है। परमात्मा ही एकमात्र सब कुछ है, वही सब के बाहर तथा भीतर सब कहीं व्याप्त है और उसी के प्रति एकांतनिष्ठ होकर रहना ये अपना परमधर्म मानते हैं। इसी प्रकार के भावों से इनका हृदय सदा भरा रहता है और इसी कारण, ये सारे जगत् को एक उदारचेता प्रेमी की दृष्टि से देखा करते हैं। संत नामदेव अपनी विचारधारा के अनुसार वस्तुतः निर्गुणोपासक थे, किंतु सगुणोपासना को भी उन्होंने अपना रखा था। वे पंढरपुर के विट्ठल भगवान को ही अपना इष्टदेव घोषित करते थे और कीर्तन करते समय भी अधिकतर उन्हींका नाम लिया करते थे। उनके लिए जगत् के सभी प्राणी अथवा पदार्थ भगवत्स्वरूप थे। विट्ठलनाथ को उन्होंने केवल परंपरा पालन के लिए स्वीकार किया था।
संत नामदेव को कबीर साहब ने एक आदर्श भक्त के रूप में माना हैं और उनकी कई बार प्रशंसा की हैं। उनके महत्त्व और प्रसिद्धि के ही कारण उनके अनेक नामधारी अन्य नामदेवों से उन्हें पृथक् कर लेना