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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१५८

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प्रारंभिक युग

इव'—गीता, ७, ७)। विचरत....होई = विचार कर लेने पर भिन्न नहीं सिद्ध होता।

(२)

वही एक है

आनीले कुंभ भराईले ऊदक, ठाकुर इसनान करउ।
बइआलीस लव जी जल महि होते, बीठलु भैला काइ करउ॥१॥
जत जाउ तत बीठलु भैला। महा अनंद करे सदकेला॥रहाउ॥
आनीले फूल परोईले माला, ठाकुरकी हउ पूज करउ।
पहिले बासु लई है भवरह, बीठलु भैला काइ करउ॥२॥
आनीले दूधु रीधाईले षीर, ठाकुर कउ नैबेद करउ।
पहिले दूधु बिटारिउ बछरै, बीठलु भैला काइ करउ॥३॥
इभै बीठलु ऊभै बीठलु, बीठल बिनु संसार नहीं।
थान थनंतरि नामा प्रणवें, पूरि रहिउ तूं सरब सही॥४॥

बीठलु....करउ = जब सर्वत्र विट्ठल हो विट्ठ है तो फिर क्या किया जाय। महा-लद केला = वह सत्स्वरूप परमात्मा सर्वत्र अपनी तोला में निरत हैं। परोई ले = ग्रंथता हूं। रीवा-ईले = राँधता हूँ। बिटारिउ = अपवित्र कर दिया। (दे॰ 'बुगली नीर बिटालिया'—कबीर)। ईभै ऊभै = इधर भी उधर भी, सर्वत्र हो। थान नंतरि = सब कहीं।

(३)

सब में वहीं

सभै घट रामु बोलै रामा बोलै, राम बिना को बोले रे॥रहाउ॥
एकल माटी कुंजर चीटी, भाजन हँ बहु नान्हा रे।
अस्थावर जंगम कीट पतंगन, घटि घटि रामु समाना रे॥१॥
एकल चिंता राषु अनंता, अउर तजहु सभ आसा रे।
प्रवणै नामा भए निहकामा, को ठाकुर को दासारे॥२॥

एकल = एक ही। भाजन = वस्तु। भए निहकामा = निष्काम की अथवा अनासक्त की दशा उपलब्ध कर लेने परसाम्यभाव आ जाता है।