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संत-काव्य

(४)

अंतर्यामी

मनकी बरिथा मनुही जाने के बूझल आगे कही।
अंतरजामी रामु रवाई, में उरु कैसी चही॥१॥
बेधी अले गोपाल गोसांई। मेरा प्रभु रबिया सरबे ठाई ॥रहाउ॥
मान हा माने पाटु माने है पासारी।
माने वाला नाना भेदी, भरमतु है संसारी॥२॥
गुरकै सबदिएहु भत्रु राता, दुविधा सहजि समाणो।
सभो हुक हुक है आपे निरभ समतु वीचारी ॥३॥
जो जन जानि भजहि पुरषोतमु, ताची अविगत वाणी ।
नामा कहूँ जगजीवन पाइआ, हिरदे अलष विडाणी॥४॥

मन की ...कही = मनोव्यथा का वास्तविक जानकार या तो मन ही होता है अथवा वह जो कभी का भुक्तभोगी हो और उससे कहा जाय। अंतरजामीचही सर्वव्यापक अंतरयामी के सामने संकोच कैसा । मानें = मन द्वारा कल्पित कर लेने पर ही पाटु = राज्या- सन । हुकसु = ईश्वरीय नियम । ताची = उसकी विणाणी = ज्ञानस्वरूप ।

(५)

मन का कपट

सापु कुच छोड़े विषु नहीं छाड़े।
उदक माह जैसे व विआनु माड़े॥१॥
काहे कउ कीजै धिआनु जपेना। जबते सुधु नाहीं मनु अपना॥रहाउ॥
सिंघ चडी जनु जो नर जानै। अैसे ही ठग देउ बजाने ॥२॥
नामे के सुनामी लाहिले झगरा। राम रसाइन पीउ रे दगरा॥३॥

कुंच = केचुल। दगरा = दगादार, छली।

(६)

अज्ञेय तत्त्व

कोई बोलै निरवा कोई बोलै दूरि। जल को माछुली चरै खजूरि॥१॥
कांइरे बकबाबु लाइउ। जिनि हरि पाइउ तिनहि छपाइ॥रहाउ॥