पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४९
प्रारंभिक युग

तनु मनु राम पिआरे जोगु॥रहाउ॥
दादु विवादु काहू सिउ न कीजै। रसना राम रसाइनु पीजै॥२॥
अब जोअ जानि अैसी बनिआई। मिलउ गुपाल नीसानु बजाई॥३॥
उसतति निंदा करे नरु कोई। नामे स्त्रोीरंगु भेटल सोई॥४॥

नीसानु बजाई = डंके की चोट के साथ (दे॰ 'तिरौं कंतले तूर बजाई'—कबीर)।

(१२)

एक मात्र स्वामी

वदहु किन होड़ भाधउ मोसिउ।
ठाकुर ते जनु जनते ठाकुरु षेलु परिज है तोसिउ॥रहाउ॥
आपन देउ देहुरा आपन, जाप लगावे पूजा।
जलते तरंग तरंगते है जलु, कहन सुनकर दूजा॥१॥
आपहिगाव हि नाचे, आप बजावे तूरा।
कहत नामदेउ तूं मेरो ठाकुर, जनु ऊरा तूं पूरा॥२॥

षेलु = बाजी लगी है। तूरा नगाड़ा वा तुरही बाजा। ऊरा = अधूरा; कम।

(१३)

उसका अंतर्यामित्व

ऐसो रामराइ अंतरजामी।
जैसे दरपन माहि बुहुनु परवानी॥रहाउ॥
बसै घटाघट लीपन छोपें। बंधन मुकता जात न दीसें॥१॥
पानी माहि देषु भुषु जैसा। नामे को सुग्रामी बीलु पैसा॥२॥

परवानी = प्रमाणित होती है। बदन = मुखाकृति। वसै...द्वीपे = प्रत्येक घट में वर्तमान है, किंतु प्रत्यक्ष होता नहीं जान पड़ता।

(१४)

प्रार्थना

लोभलहरि प्रति नौकर बाजे, काइया डूबे केसा॥१॥
संसारु समुंदे तारि गोविंदे। तारिले बाप बीठला॥रहाउ॥