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प्रारंभिक युग


(२२)

विरह की बेचैन

मोहि लागती तालावेली। बछरे बिनु गाइ अकेली॥१॥
पानीआ बिन मीनु तलफै। जैसे राम नामा बिनु बादरो नामा॥रहाउ॥
जैसे गाइ का बाछा छूटला। भन चोषता भाषनु घटला॥२॥
नामदेउ नाराइनु पाइआ। गुरु भेटत लघु लषाइआ॥३॥
जैसे विषै हेत परतारी अैसे नाम प्रीति मुरारी॥४॥
जैसे तापते निरमल धामा। तैसे रामनामा बिनु बायरो नामा॥५॥

तालावेली = विरह जनित उद्वेग। घूटला = पी गया।

(२३)

सर्व प्रधान वस्तु

परधन परदारा परहरी तार्के निकटि बसे नरहरी॥१॥
जो न भजते नाराइणा। तिनका में न करउ दरसना॥रहाउ॥
जिनके भीतर है अंतरा। जैसे पसु तैसे उइ नरा॥२॥
प्रणवति नामदेउ नाकहि बिना। नासो है बत्तीस लषना॥३॥

परहरी = परित्याग कर दिया है। अंतरा = भेदभाव। नाकहि लना = बिना नाक वाला व्यक्ति जैसे सभी शृंगारों से युक्त रहने पर भी नहीं शोभता।

(२४)

राम ही पर निर्भरता

कबहूं बीरि षांड षौउ न भावे।कबहूं घर घर टूक मंगावे।
कबहूं कूरनु चले विनावे॥१॥
जिउ रामु राषै तिउ रहीअै रे भाई।
हरि की महिमा किछु कथनु न जाई॥रहाउ॥
कबहूं तुरे तुरंग नचावै। कबहूं पाइ पनहोउ न पावे॥२॥
करहु षाटू सुवेदी सुवाये। कबहू भूमि पेनारू न पावे॥३॥
भनति नामदेउ इकु नामु सितारै।
जिह गुरु मिले तिह पारि उतारे॥४॥