पद
कत जाईअै रे घर लागो रंगु। मेरा चितु न चलै मनु भइउ पंगु॥रहाउ॥
एक दिवस मन भई उमंग, घसि चोआ चंदन बहु सुगंध।
पूजन चाली ब्रह्म दाइ, सो ब्रह्म बताइउ गुर मन ही माहि॥१॥
जहाँ जाई तह जल पवान, तू पूरि रहिउ है सभ समान।
वेद पुरान सभ देखे जोइ, ऊहाँ त जाई जउ ईहा न होइ॥२॥
सति गुर में बलिहारी तोर, जिनि सकल विकल म काटे मोर।
रामानंद सुनामी रमत ब्रह्म, गुर का सबदु कार्ट कोटि करम॥३॥
रंगु = वास्तविक स्थिति का आनंद। लागो = प्रभावित कर दिया, ' प्राप्त हो गया। घर = बिना कहीं गये हो। ब्रह्मठाइ = ब्रह्म वा परमात्मा के किसी बाहरी निवास स्थान पर। जोइ = विचारपूर्वक। विकल = अनैसर्गिक अथवा बेचैन कर देने वाला। गुरका सबदु...करम = सतगुरु के उपदेश द्वारा सारे कर्मों का नष्ट हो जाना संभव है।
संत सेन नाई
सेन नाई के संबंध में दो भिन्न-भिन्न मत प्रचलित हैं जिनमें से एक के अनुसार वे बीदर के राजा के यहां नियुक्त थे तथा प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर की शिष्य मंडली के थे और दूसरे के अनुसार वे बांधवगढ़ के राजा के सेवक थे और स्वामी रामानंद के शिष्यों में से एक थे। उनकी प्राप्त मराठी रचनाओं द्वारा पहली बात पुष्ट होती जान पड़ती है; किंतु उनके हिंदी में रचे गए पदों से उसमें कुछ संदेह भी होने लगता है। प्रो॰ रानडे ने उनका समय सं॰ १५०५ के आसपास माना है जिससे उनका ज्ञानेश्वर का समसामयिक होना सिद्ध नहीं होता। इधर 'आदि ग्रंथ' में संगृहीत उनके एक हिंदी पद से जान पड़ता है कि वे स्वा॰ रामानंद के समकालीन कहे जा सकते हैं। अतएव संभव है कि उनका संबंध पहले दक्षिण के वारकरी संप्रदाय के