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संत-काव्य

साथ ज्ञानेश्वर के अनंतर हुआ हो और वे अंत में, संत नामदेव की भांति उत्तर की ओर आकर कुछ दिनों तक स्वा॰ रामानंद के संपर्क में भी आ गए हों। उनकी वानियों में उनके किसी का शिष्य होने की बात नहीं मिलती। राजाओं के संबंध की बात भी बहुत कुछ चमत्कारपूर्ण होने के कारण केवल एक काल्पनिक घटना ही हो सकती है जो संदिग्ध है। उनका समय विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं पंद्रहवीं के पूर्वार्द्ध में माना जा सकता है, किंतु जन्मभूमि का निर्णय करना फिर भी कठिन है।

सेन नाई की फुटकर बानियां कई मराठी तथा हिंदी संग्रहों में पायी जाती हैं, किंतु उनकी संख्या अधिक नहीं। 'आदि ग्रंथ' में केवल एक पद आया है जिसे सेन की 'आरती' कह सकते हैं और जिसमें उन्होंने गोविंद से अपने होने के लिए प्रार्थना की है। छंद मराठी अभंगों का अनुसरण करता है।

पद

आरती

धूप दीप प्रित साजि आरती। बारने जाउ कमलापती॥१॥
मंगला हरि मंगला। निल मंगल राजाराम राइ को॥रहाउ॥
ऊतम वीरा निरमल बाती। तूही निरंजनु कमलापाती॥२॥
रामा भगत रामानंदु जाने। पूरन परमानंदु वष्टामैं॥३॥
मदन मूरति तारि गोविदे। सैणु भणे भजु परमानंदे॥४॥

घ्रित = धृत, घी। वारने जाउ = बलि बलि जाता हूं, न्योछावर होता हूं। तूही....कमलापति = हे कमलापति!, तूही निरंजन भी है। पुरन... वषाने = वे रामानंद उस भक्ति की व्याख्या पूरे आनंद के साथ किया करते हैं। तारि = भवसागर के पार कर दो। (हि॰ 'पूरन परमानंदु' से अभिप्रायपूर्ण परमानंदमय परमात्मा भी हो सकता है)।

संत कबीर साहब

कबीर साहब के सर्वप्रसिद्ध संत होते हुए भी उनके जीवन-काल,