उसके शब्दचयन, वाक्य रचना एवं वर्णनशैली में देखी जाती है और विषय की दृष्टि से उसकी खोज उसके भावगांभीर्य, अर्थ गौरव तथा उस उद्देश्य में की जाती है जिसकी ओर वह संकेत करता है। दोनों में से किसी एक विशेषता के ही कारण कोई काव्य क्रमश:-भाषाप्रधान वा भावप्रधान कहा जाता है। पहले प्रकार के काव्य का रचयिता किसी विषय को लेकर उसके वर्णन की शैली में अपनी सारी कार्यपटुता प्रदर्शित करता हुआ लक्षित होता है। वह अपने वाक्यों में शब्द-सौंदर्य भरता है, विविध अलंकारों के प्रयोग करता है, लय का आयोजन करता है और अपने भावों को ऐसी निपुणता के साथ व्यक्त करता है जिससे उसकी कृति में एक प्रकार का चमत्कार-सा आ जाता है। परन्तु दूसरे प्रकार का कवि अपने वर्णन के साधनों की ओर उतना ध्यान नहीं देता। उसका वर्ण्य विषय उसे इतनी गहराई तक प्रभावित किये रहता है कि उसे ज्यों का त्यों व्यक्त कर देने में ही उसे एक प्रकार के आनंद का अनुभव होता है। उसके भावों की व्यंजना में किसी प्रयास की अपेक्षा नहीं रहा करती और वे उसके शब्दों द्वारा आप से आप रमणीयार्थों के रूप में व्यक्त होते जाते हैं। भाषा का सौंदर्य यहाँ पर वास्तविक भावों को यथावत् वहन करने वाली उसकी क्षमता में ही देखी जाती है, उसके वाह्य रूप की सजावट में नहीं। यह बात दूसरी है कि भाषा पर अच्छा अधिकार प्राप्त रहने के कारण ऐसा कवि कभी-कभी उसे सँवारने का भी कुछ न कुछ प्रयत्न कर देता है ।
अतएव, किसी काव्य का वास्तविक महत्व भाषा से अधिक उसके भावों के ही कारण माना जा सकता है। भाव, वस्तुतः काव्य पुरुष का 'स्वभाव' है जब कि भाषा केवल उसका 'शरीर' मात्र ही कही जा सकती है। इस कारण, जिस प्रकार किसी प्रकृत मनुष्य के चरित्र के सुन्दर बने रहते उसके शरीर का भी सुंदर होना अपेक्षित नहीं, उसी