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प्रारंम्भिक युग

जन्म मरण-स्थान एवं जीवन की प्रमुख घटनाओं के संबंध में अभी तक विद्वानों में बहुत कुछ मतभेद दीख पड़ता है और यही बात कुछ अंशों तक, उनके मत के विषय में भी कही जा सकती हैं। उन्होंने स्वयं अपना ऐतिहासिक आत्मचरित प्रायः कुछ भी नहीं दिया है और उनके समसामयिक भी उनकी ओर केवल संकेत करके ही रह गए हैं। उनके पीछे आने वाले लेखकों अथवा आधुनिक विद्वानों के कथन अधिकतर अनुमानों पर ही आश्रित हैं जिन पर अंतिम निर्णय देना कठिन है, फिर भी सारी उपलब्ध सामग्रियों की छानबीन करने पर जो निष्कर्ष निकलता है उसके अनुसार उनका एक संक्षिप्त परिचय दिया जा सकता है।

इसके अनुसार कबीर साहब की मृत्यु संभावतः विक्रम संवत की सोलहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में किसी समय हुई होगी और, ऐसा मान लेने पर उनकी जन्मतिथि को हमें परंपरागत सं॰ १४५५ में कुछ कुछ पहले अर्थात पंद्रहवीं के द्वितीय वा प्रथम सं॰ तक भी ले जाना होगा। इसी प्रकार कबीर साहब की जाति सभी बातों पर विचार कर लेने पर, जुलाहे की ठहरती है और उनका निवास स्थान काशी तथा मरण-स्थान मगहर जान पड़ते हैं तथा उनके जन्म स्थान का भी काशी होना विवादग्रस्त समझ पड़ता है। कबीर साहब के दीक्षा गुरु स्वा॰ रामानंद समझे जाते हैं और उनके गुरुभाई सेन, पीपा, रैदास और धन्ना संत माने जाते हैं, किंतु इस बात के लिए प्रत्यक्ष प्रमाणों का अभाव दीखता है। स्वा॰ रामानन्द तथा सेन कबीर साहब के बड़े समकालीन, पीपा तथा रैदास छोटे समकालीन तथा धन्ना कुछ पीछे के जान पड़ते हैं और प्रायः सभी एक समान मत के हैं। इन संतों का स्वा॰ रामानंद द्वारा किसी न किसी रूप में प्रभावित होना असंभव नहीं। शेख तकी वा पीताम्बर का उनका पीर होना बहुत कुछ काल्पनिक ही है। कबीर साहब का सत्य की खोज वा सत्संग के योजना क्रम में दूर-दूर तक पर्यटन करना और कहीं-कहीं कुछ समय तक ठहर जाना भी सिद्ध होता है।