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संत-काव्य

जा सकें तो शेष रचनाओं की प्रामाणिकता असंदिग्ध हो सकती हैं।

'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' द्वारा प्रकाशित 'कबीर-ग्रंथावली' एक तीसरा ऐसा संग्रह है जो पुराने हस्तलेखों के आधार पर तैयार किया हुआ बताया जाता है और जिसकी लगभग ५० साखियाँ एवं १५ पद 'आदि' की वैसी ही रचनाओं के समान हैं। जब में से भी कई ऐसी हैं जिनकी असमानताका आधार केवल पाठभेद ही कहा जा सकता है। इस संग्रह का पाठ दो पुरानी हस्तलिखित प्रतियों पर आश्रित कहा जाता है। जिनमें से एक सं॰ १८८१ और दूसरी सं॰ १५६१ की है। किंतु दूसरी क्रे अंत में 'सं॰ १५६१' आदि कुछ बातें अन्य लेखनी से लिखी जान पड़ती हैं जिस कारण उसकी प्रामाणिकता में संदेह किया जा सकता है। फिर भी उसमें संगृहीतों की प्राचीनता उनकी भाषा तथा उनके बेसुधरे रूपों की सहायता द्वारा सिद्ध की जा सकती है। उक्त सभा को एक अन्य मंत्र भी मिला है जिसका लिपिकाल सं॰ १८५५ जान पड़ता है और, जिसमें संगृहीत कबीर साहब की रचनाएं उक्त ग्रंथावली में आये हुए पचों से समानता रखती हैं तथा जिसमें कुछ टिप्पणियाँ भी दी हुई हैं। इस संग्रह में कबीर-कृत पद्यों की संख्या अधिक नहीं है, किंतु इसके दो-तीन पद ऐसे भी हैं जो ग्रंथावली में नहीं दीख पड़ते। कबीर साहब की रचनाओं के ऐसे संग्रह वा मंत्र द्वारा सुरक्षित कुछ प्राचीन हस्तलिखित गुटकों में भी पा जाते हैं और उनकी प्रामाणिकता में बहुत कम संदेह किया जाता है। फिर भी इस प्रकार के सभी संग्रहों को एकत्रित कर उनका तुलनानक अध्ययन अभी तक नहीं किया जा सका है और न, इसी कारण कबीर साहब की सभी उपलब्ध रचनाओं का कोई ऐसा शुद्ध संस्करण ही निकाला जा सका है जो पूर्णतः प्रामाणिक माना जाय। प्राचीनता का विचार छोड़ कर किए गए ऐसे रचना-संग्रहों में 'बेलवेडियर प्रेस' प्रयाग की पुस्तकें सब से अधिक प्रसिद्ध हुई हैं। किंतु इन संग्रहों में अन्य संतों वा कवियों की भी