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प्रारंभिक युग

अनेक रचनाएँ भूल के कारण भर दी गई हैं जिनका पृथक किया जाना आवश्यक है।

कबीर साहब की उक्त प्रकार से संगृहीत रचनाओं में प्रधानता पदों तथा साखियों की है। पदों को शब्द बानी, वचन वा उपदेव भी कहा गया है और इसी प्रकार, साखियों को 'आदि-ग्रंथ' में सलोक नाम दिया गया है। पदों का रूप, वास्तव में, गेय रचनाओं का है और वे अधिकतर भिन्न-भिन्न रागों के अन्तर्गत संगृहीत भी पाये जाते हैं, किंतु साखियों में दोहे, सोरहे अथवा छप्पय जैसे पद्य भी आ गए हैं। पदों में कबीर साहब के सिद्धांत, उनके हृदयोद्गार तथा साधना संबंधी कतिपय संकेतों की प्रचुरता है और इसी प्रकार उनको साखियों में अधिकतर ऐसी बातें पायी जाती हैं जो उनके आध्यात्मिक अनुभव तथा सामाजिक जीवन की प्रमुख बातों को सारांशतः प्रकट करती हैं। कबीर साहब की अन्य प्रामाणिक रचनाओं में 'बावनअखरी' तथा रमैनियों की चर्चा की गई है जिनके विषय भी प्रायः वे ही हैं जो उपर्युक्त पद्यों में पाये जाते हैं किन्तु जिनकी रचना चौपाई जैसे साधारण छंदों के प्रयोग द्वारा की गई है।

कबीर साहब विचार-स्वातंत्र्य तथा सात्त्विक जीवन के प्रबल समर्थक थे और उनकी साधना स्वानुभूति, सद्विचार तथा सदाचरण से संबंध रखती थी। उनके मत में, इसी कारण न तो किसी धर्म का महत्त्व था और न किसी विधिनिषेध अथवा बाह्य पूजन की ही प्रधानता थी। वे, वस्तुतः, केवल शुद्ध सत्य के पुजारी थे और उसीको अनुभूति एवं अभिव्यक्ति उनके आध्यात्मिक जीवन का सर्वप्रथम उद्देश्य था। उनकी कथन-शैली में कतिपय प्रचलित शब्दों के प्रयोग का विशेष रूप से होता रहना उनका किसी मत विशेष का अनुयायी होना नहीं सिद्ध करता और न केवल इसी एक बात के आधार पर हम उन्हें किसी

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