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संत-काव्य

प्रचलित धर्म वा संप्रदाय की सीमा के अंतर्गत अवरुद्ध कर सकते हैं। उन्हें किसी भी मत के मौलिक सिद्धांतों से कोई विरोध नहीं और के उनके अनुयायियों को केवल उन्हीं बातों की ओर उन्मुख होने का परामर्श भी देते हैं। सत्य एक, नित्य तथा सर्वत्र ओतप्रोत है और उसकी अनुभूति के लिए शुद्ध हृदय एवं सदाचरण की आवश्यकता है। उसकी ओर सदा उन्मुख रहने पर हमें शांति, एकता एवं आनन्द का अनुभव होता है और तभी हम स्वार्थ एवं परमार्थ के सामंजस्य द्वारा कल्याण कर सकते हैं। इन बातों को उन्होंने स्पष्ट शब्दों में और निर्भीकता के साथ कहा है और इनके अनुसार न चलने वालों को उन्होंने खरी-खोटी भी सुनाई है।

कबीर साहब की रचनाओं में कई भिन्न-भिन्न भाषाओं के शब्द आते हैं और उनकी पंक्तियों में प्रायः व्याकरण तथा पिंगल को अशुद्धियाँ भी मिलती हैं। उनके अनेक पदों में एक से अधिक भाव बिना किसी क्रम के रखे गए दीख पड़ते है जिनके कारण कभी अस्पष्टता का दोष भी आ जाता है। परन्तु सत्र कुछ के होते हुए भी, उनके अधिकांश पद तथा साखियाँ अपने भावगांभीर्थ, ऊँची उड़ान, स्पष्ट चित्रण तथा चुटीलेपन में अद्वितीय दीखती हैं। उनके रूपक, उनकी अन्योक्तियाँ, उनके दृष्टांत, उनकी अतिशयोक्ति एवं विभावना द्वारा निर्दिष्ट अनोखी सूझें और उनकी साधारण क्षेत्र के आधार पर भी कल्पित की गई, विविध उल्टवासियाँ उनकी अपनी विशेषताएँ है। कबीर साहब की रचनाओं में काव्य-कला का प्रदर्शन कहीं नहीं मिलता, उनमें एक अपना निराला सौंदर्य है जो, उनकी प्रतिभा के कारण, बिना किसी प्रयास के भी, आपने आप फूट पड़ा है।

पद

अस्थिर संसार

(१)

का माँगूं कुछ थिर न रहाई, देखत नैन चल्या जग जाई॥टेक॥
इक लष पूत सवालब नाती, ता रावन घरि दीवान बाली॥१॥