लंका सा कोट समंद सी खाई, ता रावन की खबरि न पाई॥
आवत संग न जात संगाती, कहा भयो दरि बाँधे हाथी॥३॥
कह कबीर अंत की बारी, हाथ झाड़ि जैसें बले जुवारी॥४॥
(१) देखत नैनांखों के सामने। (दे॰ गुरु नानक देव, "मैं किआ मगाउ किछू थिरू न रहाई हरि दीजै नाम पिआरी जीउ", 'आदि ग्रंथ', सोरठि ८ तथा "अैजी किश्रा मागउ किछु रहे नदीस, इसु जनमहि आइला जाई", 'आदि-ग्रंथ', गुजरी ३)। संगाती = साथी। हाथ...जुवारी = हारे जुनारी की भांति नंगे हाथ चला जाना है। (दे॰ जायसी—"हाथ कारि जस चलें जुयारी। तजा राज, होइ चला भिखारी", 'जायसी ग्रंथावली', पृ॰ ३२९)।
(२)
माया तजूं तजी नहीं जाइ, फिर फिर माया मोहि लपटाइ॥टेक॥
माया आदर माया मान, माया नहीं तहाँ ब्रह्म गियान॥१॥
माया रस माया कर जाँन, माया कारनि तजे परान॥२॥
माया जप तप माया जोग, माया बांधे सबही लोग॥३॥
माया जल थलि माया आकासि, माया व्यापित रहीचहूं पासि॥४॥
माया माता माया पिता, अति माया अस्तरी माया सुता॥५॥
माया मारि करें ब्यौहार कहे कबीर मेरे राम आधार॥६॥
अस्तरी = स्त्री
(३)
मन थिर रहे न घर हूँ मेरा, इन मन घर जारे बहुतेरा॥टेक॥
घर तजि बन बाहर कियो बास, घर बन देखों दोऊ निरास॥१॥
जहाँ जाऊँ तहाँ सोग संताप, जुरा मरण को अधिक वियाप॥२॥
कहै कबीर चरन तोहि बंदा, घर में घर दे परमानंदा॥३॥
मन...मेरा = मेरा मन मेरे लिए शांति का आश्रय स्थान बन