पंडित गुंनी सूर कवि दाता, ऐजु कहैं बड़ हमहीं॥२॥
बार पार की खबर ना जानौ, फिरचौ सकल बन ऐसे।
यह मन बोहिथ के कउ आज्यूं, रह्यौ ठग्यौ सौ वैसे॥३॥
जि बाँ दाहिणं बिकारा, हरिपद दिढ़ करि रहियै।
कहै कबीर गूंगे गुड़ खाया, बूझै तौ का कहिये॥४॥
विगूते = विकुंचित वा दबोचे हुए हैं। चुंडित = शिखाधारी। यहु. .ज्यों = यह मन, समुद्र पर चलते हुए जहाज के काग पक्षी की भांति, सब कहीं से चल कर फिर वहीं आकृष्ट होकर बैठ गया है। तजि... विकारा = इधर-उधर की बातों में न पड़कर। (दे॰ सरहपा "उड्डी वीहि काउ जिम पलुहिय तहवि पडेइ"—'दोहा कोष' ७०)। बूझै कहिये = पूछने पर क्या कहेगा।
पाठभेद—विगुरचै (बीजक), झुलाने (आदिग्रंथ) गंदा (बीजक तथा क॰ ग्रंथ॰) आपनयाओ खोयो (बीजक) आपन पौ छुडावण (क॰ ग्रं॰) 'फंदे (बीजक) बीधे (क॰ ग्रं॰) 'पंडित (आ॰ ग्रं॰) लुंचित (क॰ ग्रं॰)।
(६)
संतौ धागा टूटा गगन विनसि गया, सबद जु कहाँ समाई॥
ए संसा मोहि निसदिन व्याप, कोइ न कहें समझाई॥टेक॥।
नहीं ब्रह्मंड प्यंड पुनि नाहीं, पंचतत भी नाहीं।
इला प्यंगुला सुषमन नाहीं, ए अवगन' कत जाँहीं॥१॥
नहीं ग्रह द्वारा कछू नहीं तहियाँ, रचनहार पुनि नाहीं।
जो उनहार प्रतीत सदा संगि, इह कहीए किस' माँहीं॥२॥
तूटै बंधै बंधै पुनि तूटै, जब लग होइ विनासी।
काको ठाकुरु काको सेवकु को काहकै जासी॥१३॥