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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१७९

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संत-काव्य

कह कबीर यहु गगन न विनसै, जौ धागा उनमांना।
सीखें सुनें पढ़े का होई, जो नहीं पर्दाह समाना॥४॥

धागा... समाई = जब श्वास बंद होकर यकाश में लीन हो जाता है तो ये शब्द कहां रहते हैं। संसा = संशय। अवगन = आवागमन के समय। रचनहार = सृष्टिकर्ता ब्रह्मा काको जासी = फिर कौन किसका स्वामी है और कौन किसका सेवक है तथा कौन किसके निकट जाया करता है। गगन = घट उनमाना = उन्मन अथवा परमात्मा की ओर उन्मुख रहता है।

पाठभेद—'बोलतु (अ॰ ग्रं॰) ए गुण (क॰ ग्रं॰) तहाँ समाही (क॰ ग्रं॰) तव (क॰ ग्रं॰) "तब को ठाकुर अब को सेब को कौ काकै बिसवासा (क॰ ग्रं॰)।

(७)

गगन रहस्य

कही भईया अंबरकासूं लागा, कोई जागंगा जाननहार सभागा॥टेक॥
अंवरि दीसे केला तारा, कौन चतुर ऐसा चितरनहारा॥१॥
तुम देखो सो यह नाहीं, यह पद ग्राम गोचर माहीं॥२॥
तीन हाथ एक वाई, ऐसा अंबर बोन्हौ रे भाई॥३॥
कह कबीर जेर जानें ताहीं तूँ मेरा मन मांनै॥४॥

अंबर = आकाश। कोई सभागा = कोई भाग्यशाली समझदार व्यक्ति ही इसका रहस्य जानता है। तीनि...अरधाई = साढ़े तीन हाथ का शरीर। अंबर = घट।

पाठभेद—चेतनहारे चेतु सुभागा (बीजक), बूबूझण हारु सभागा (आ॰ ग्रं॰), सो तो आहि अमरपद माही (बीजक)।

(८)

चेतने का अवसर

बाती सूकी तेल निखुटा, मंदल न बाजे नटु पै सूता॥टेक॥