प्रकार उत्कृष्ट भावों की उपस्थिति में काव्य के भाषा-सौंदर्य का भी होना अनिवार्य नहीं कहा जा सकता। इसके सिवाय काव्य का कोई भाषागत दोष किसी प्रकार क्षम्य भी हो सकता है, किन्तु उसके भावों की अशोभनता कभी स्पृहणीय नहीं समझी जा सकती है। काव्य सरिता सुरसरि की भाँति वक्र एवं विकृत होने पर भी अपने अंतःपूत सलिला बने रहने के कारण ही अभिनंदनीय हुआ करती है। इस कारण किसी काव्य को श्रेष्ठ वा साधारण ठहराते समय सर्वप्रथम उसके भावों की दष्टि से ही विचार करना आवश्यक होता है। यदि उसके भाषा वा शैली संबन्धी गुण भी उत्कृष्ट हुए तो वह एक आदर्श काव्य कहा जायगा अन्यथा उसे साधारण काय की श्रेणी में रख दिया जाता है। उच्च भावों का अभाव किसी पद्य को हल्का एवं नीरस बना देता है। वैसी दशा में, उसे कोरी तुकबंदी से अधिक नहीं समझा जाता जहाँ सुंदर भावों को यथावत् प्रकट करने वाला गद्य भी 'गद्यकाव्य' की संज्ञा पा जाता है। अतएव काव्य की संतोषप्रद परिभाषा न दे सकने का एक प्रमुख कारण यह भी हो सकता है कि इस मूलतः भावाश्रित वस्तु का वास्तविक स्रोत हृदयक्षेत्र है जहाँ पर किसी सीमा की वैसी इयत्ता नहीं प्रतीत होती जिसके आधार पर कोई रूपरेखा निर्धारित की जा सके और उसे सर्वसाधारण के समक्ष उपस्थित किया जा सके। ऐसा प्रयत्न करने वालों की बातें इसी कारण बहुधा दार्शनिक वा रहस्यमय तक बनकर रह जाती हैं और काव्य की कोई उपयुक्त परिभाषा देने की अपेक्षा उसका किसी न किसी रूप में परिचय दे देना ही उनके लिए पति समझा जाने लगता है।
किसी काव्य के उत्कर्ष में श्रीवृद्धि करने वाली जिन दो प्रमुख बातों की चर्चा साहित्यज्ञों में विशेषरूप से की है वे रस-परिपाक एवं अलंकारों का समुचित विधान है। 'रस' का वास्तविक अभिप्राय