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प्रारंभिक युग

बुझि गई अगनि न विकसित धूंआ।
रवि रहिआ एकु अरु नहीं दूजा॥१॥
तूटी तंतु न बजै रबाबु।
भूलि बिगारिआ अपना काजु॥२॥
कथनी बदनी कहतु कहावनु।
समझि परि तउ बिसरिउ गावनु॥३॥
कहत कबीर पंच जो चूरे।
तिन्ह ते नाहि परमपद दूरे॥१४॥

बाती = जीवन की बत्ती। सूकी = सूख गई। निखुटा = समाप्त हो गया। मंद = श्वास-अश्वास का बाजा। नट = जीवात्मा। रमि रहिया = रम गया। तंतु = तार। भूलि = परमात्मा को भुलाकर। समझि परी = मिथ्यापन जान पड़ा। गावनु = गुणगान करना। पंच जो चूरे = जो अपनी इंद्रियों पर अधिकार कर लेते हैं।

(९)

उपालंभ

गोव्यंदे तुम्है डरपों भारी।
सरणाई आऔ क्यूं गहिये, यहु कौंन बात तुम्हारी॥टेक॥
धूप दाझतैं छांह तकाई, मति तरवर सच पाउ।
तरवर माहै ज्वाला निकस, तौ क्या लेइ बुझाउं॥१॥
जे बन जले त जलकू धावें, मति जल सीतल होई।
जलही माहि अगानिजे निकस, और न दूजा कोई॥२॥
तारण तिरण तिरण तूं तारण, और न दूजा जानौं।
कह कबीर सरनाई आयौं, आन देव नहि नानौं॥३॥

सराई... गहिये = मुझ शरणागत को किस प्रकार अपनाओगे। यह ....तुम्हारी = वह कौन सी बात है जिस पर भरोसा किया जाय। धूप....सचपाऊं = यदि, धूप के ताप से बचने के लिए, छाया की खोज