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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१८२

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प्रारंभिक युग

में भी इसकी केवल तीसरी से लेकर छठी पंक्तियाँ तक हो किसी न किसी रूप में आती हैं।

(१२)

दैन्य प्रकाशन

कहा करौं कैसैं तिरौं, भोजल प्रति भारी।
तुम्ह सरणागति केसवर राखि राखि मुरारी॥टेक॥
घर तजि बनखंडि जाइयै, खानि खइये कंदा।
बिषै विकार न छूटई, ऐसा मन गंदा॥१॥
विष विषिया की वासना, तज तजी नहीं जाई।
अनेक जतंन करि सुरझिहौं', फुनि फुनि उरझाई॥२॥
जीव अछि जोवन गया, कछ, कोया न नीका।
यह हीरा निरमोलिका, कौड़ी पर बीका॥३॥
कहे कबीर सुनि केसवा, तूं सकल वियापी।
तुम्ह समाँनि दाता नहीं, हमसे नहीं पापी॥४॥

कंदा कंद-मूल। विषविषिया = भिन्न-भिन्न विषयों की। जीव अछित = जीते जी। सकल विआपी = सर्वव्यापी।

पाठभेद—जलनिधि (आ॰ ग्रं॰), राखु राखु मेरे बीहुला जनु सरनि तुम्हारी 'चुनि खाइये, 'अजहु विकार न छोड़ई पायी मनु मंदा, विखै-विखै की वासना तजीच नह जाई, राखिहों, "जरा जीवन कउडी लगि मीका, 'तुम जोवनु गइया, 'इह जीरा निरमोल को समर नाही दइत्रालु, मोहि समसरि पापी (आ॰ ग्रं॰)।

(१३)

असमर्थता

परम गुर देखौ रिदै विचारी। कछू करौ सहाइ हमारी ॥टेक॥
लवा नालि तंति एक संमि करि, मंत्र एक भलि साजा।
सति असति कछू नहिं जानूँ, जैसे बजावा तैसें बाजा॥१॥