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संत-काव्य

चोर तुम्हारा तुम्हारी आया मुसियत नगर तुम्हारा।
इनके गुनह हमह का पकरौ का अपराध हमारा॥२॥
सेई तुम्ह सेई हम एकै कहियत, जब आपा पर नहीं जाता।
ज्यूं जलमैं जल पैसि न निकसे, कहै कबीर मन सोना॥३॥

रिदै = हृदय में। लवा...साजा = उदर मालिका के लाउआ पर जिह्वा की तांत लगा कर काया का वाद्य यंत्र निर्मित है। जैसे ... बाजा = जैसा चाहते हो कहला लेते हो। चोर...तुम्हारा = गुणादिक भी तुम्हारे ही नियमानुसार कार्यकर तेरे वासस्थान (पिंड) को हानि पहुंचाया करते हैं। सेई ... कहियत उसी एक को तुम और हम कहा जाता है।

(१४)

अपनी दशा

माधव जल की वासन जाइ। जल मोह प्रगति उठी अधिकाई॥टेक॥
तूं जलनिधि हंउ जल का मीनू। जलमहि रहंड जलहि बिनु खीनु।
तूं हिंउ सूटा तोर। जब मंजार कहा करे मोर॥२॥
तूं तरवरु हंउ पंची आहि। मंहभागी तेरी दरसतु नाहि॥३॥
तूं सतिगुर उन चेला। कहि कबीर मिल अंतकी बेला॥४॥

नउतनु = नूतन, नौसिखिया।

(१५)

विनय

राखि लेहु हमले बियरी।
सीलु धरमु जपु भगति न कीनी, हड अभिमान टेढ पगरी॥टेक॥
अमर जानि संची इह काइआ, इह मिथिया काची गगरी॥
जिनहि निवाजि साजि हम कीए, तिसहि बिसारि प्रबर लगरी॥१॥
संधिक योहि साध नहीं कहीअहु, सरति परे तुमरी पंगरी।
कहि कबीर अहि बिनति सुनी हु, मत घालहु जमकी खनरी॥२॥

बिगरी = भूल हो गई, अपराध हो गया। हउ...पगरी = अभि-