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संत-काव्य

 

(१७)

मनोमहत्त्व

मनका सुभाउ मनहि विआपी। मनहि मारि कवन सिधियापी॥टेक॥
कवनसु मुनिजोम कौमारं। मनको भारि कहहु किसुतारें॥१॥
मन अंतरि बोले सभ कोई। मन मारे बिन, भगति न होई॥२॥
कह कबीर जो जाने भेउ। मनु मसूदन त्रिभवण देउ ॥३॥

मनका बिनाषी = मन का स्वभाव मन में ही व्याप्त है। कवत...तारे मन के मारने से तात्पर्य उसे नष्ट करना नहीं है क्योंकि मुक्ति भी वस्तुतः उसी की होती है। मन...होई = मन की ही प्रेरणा से सभी बोला करते हैं इस कारण भक्ति के लिए उसका निःस्वभावीकरण (जो मनोमारण के ही तुल्य है) आवश्यक है। जो दे = जो इस रहस्य से परिचित है वही मन को परमात्मा के प्रति उन्मुख कर सकता है।

(१८)

प्रार्थना

बीनती एक राम सुनि थोरी, अब न नचाइ राखि पति मोरी॥टेक॥
जैसे मंदला तुमहिं बजावा, तैसें नाचत में दुख पावा॥१॥
जेमस लागी सबै छुड़ाबौ, अब मोहि जिनि बहु रूपक छावा॥२॥
कह कबीर मेरी नाच उठावा, तुम्हारे चरन कवल दिखलावो॥३॥

थोरी = छोटी सी। मंदला = शरीर के वाद्य यंत्र के मसि = पाप अब...छावौ = अब मुझसे अधिक अभिनय न कराओ। नाच = आवाका चक्कर। तुम्हारे = अपने।

(१९)

अपनी कठिनाई

राम राइ सो गति भई हंमारी, मोपें छूटत नहीं संसारी ॥टेक॥
ज्यं पंखी उड़ि जाइ अकास, ग्रास रही मन मांही। छूटी न आस टूट्यौ नहीं फंधा, उड़ियाँ लागे कांहीं॥ १॥
जो सुख करत होत दुख तेई, कहत न कछु बनि आवै। कुंजर ज्यू कस्तूरी का मृग आये आप बंधावे॥२॥