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प्रारंभिक युग

कहै कबीर नहीं बस मेरा, सुनिये देव मुरारी।
इत भैभीत डरों जमदूतनि, आये सरनि तुम्हारी॥३॥

सो = ऐसी। उडिवो...काही = तो उड़ता किस काम का। इत...दूतनि = ईवर से भयभीत होकर यमदूतों के डर से भी डरने लगा हूँ, इस कारण।

(२०)

विरह-निवेदन

तुम्ह बिन राम वन सौं कहिये।
लागी चोट बहुत दुख सहिये॥टेक॥
यो जीव विरह के भाले, राति दिवस मेरे उर साले॥१॥
को जाने मेरे को गोरा, सतगुर सबद नहि पयो सरीरा॥२॥
तुम्हसे दन हमसे रोगो, उनजी दिया कैसे जो वियोगी॥३॥
निसु वासर मोहि चितवत जाई, अहं न माइ मिले राम राई॥४॥
कहत कबीर हमको बुल भारी, बिन दरसन क्यूं जोबहि जुरारी॥५॥

जीव = मेरे प्राण। बहिनी = पार कर गया है।

(२१)

जोग-जुगति

मतपत्र सुखु बनिया। किछु जोग परापति गमिआ॥टेक॥
गरि दिखलाई मोरी। जितु मिरा पड़त हैं चोरी।
मूंदि लिए दरवाजे। बाजीले अनहद बाजे॥११॥
कुंभ कमलु जलि भरिआ। जलु मेटिया ऊभा करिआ।
कह कबीर जन जानिया। जड जानिया तर मनु मानिया॥२॥

मन = मन को। पवन = पवन-साधन वा प्राणायाम द्वारा ही। सुख बनिया = सुख का अवसर मिला है। कि गनिया = मैंने इसे योग-प्राप्ति का ही कुछ न कुछ परिणाम समझा है। मोरी तंग रास्ता वा सूक्ष्म मार्ग (योग का)। जितु चोरी = जिधर इंद्रिय सूत्र चोरी से वर जाया करते हैं। दरवाजे = शरीर के मार्ग। बाजिले रोकने के लिए अनाहत की ध्वनि खोल दी। कुंभ बाजे = मृगों को करिया = कुंभक