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संत-काव्य

द्वारा सहस्र दल कमल को वायु जल से भर दिया और उस सीधा करके पुनः रेचक द्वारा उक्त जल को बाहर कर दिया।

(२२)

मन की साधना

नरदेही बहुरि न पाईये, ताचैं हरषि हरषि गुण गाईये॥टेक॥
जे मन नहीं त विकारा, तो क्या तिरिये भौ पारा।
जब मन छाड़े कुटिलाई, तब आइ मिले राम राई॥१३॥
ज्यू जौम यूं मरणां, पछतावा कछू न करणां।
जणि मरे जे कोई, तो बहुरि न मरणां होई॥२॥
गुरबचमा कि समावे, तब राम नाम त्यो लावै।
जब राम नाम त्यो लागा, तब भ्रम गया भौ भागा॥३॥
समिसर सूर मिलावा, तव अनहद बेन बजावा।
जब अनहद बाजा बाजे, तब सांई संगि विराजे॥४॥
होह संत जनन के लंगो, मन राचि रह्यौ हरि रंगी।
धरी चरन कवल विसवासा, ज्यूं होइ निरभ पद बासा॥५॥
यह काचा खेल न होई, जन परतर खेलें कोई।
जब परतर खेल मवावा, तब गगन मंडल मठ छावा॥६॥
चित चंचल निचल कीजे, तब राम रसांइन पीजै।
जब राम रसाइन पीया, तब काल मिया जन जीया॥७॥
यूं दास कबीरा गा, तार्थे मन को मन लगायें।
मनही मन समझाया, तब सतगुर मिलि सचुपाया॥८॥

ज्यूं...मरणा = जन्म एवं मरण में वस्तुतः कोई भी अंतर नहीं। जाँगि...कोई = जो जीते जी मुक्त होने के लिए भरता है। गुर...समावें गुरु के संकेतों को भलीभांति समझकर। भौ = सांसारिक आवागमन। ससिहर...बजावा = चंद्र (इडा नाडी) तथा सूर्य ( पिंगला नाडी) को सुषुम्ना नाड़ी में मिला कर अनाहत नाद की अभिव्यक्ति की जाती है और ऐसा होने पर परमात्मा की उपलब्धि हो जाती है। होह =