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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१८८

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प्रारंभिक युग

होजाओ। काचा खेल = साधारण प्रकार की क्रिया नहीं है। जन...कोई = इसका अभ्यास कोई असाधारण शक्ति का पुरुष ही कर सकता है। गगन... छावा = इस कड़े अभ्यास को सम्पन्न कर लेने पर साधक की गतिः सहस्रार के निकट हो जाती है। चित...कोजै = मन की चंचलता क उसके निःस्वभावीकरण द्वारा दूर कर देना आवश्यक है। राम...पीया = तभी परमात्मा की अनुभूति का आनंद मिल पाता है। मनको समझावें = मन इस रहस्य को हृदयंगम करता है।

(२३)

स्वागत

अब तोहि जान न देहूं राम पियारे।
ज्यू भावे त्यूं होह हमारे॥टेक॥
बहुत दिनन के बिछुरे हरि पाये, भाग बड़े घर बैठे आये॥१॥
चरननि लागि करौं बरियाई, प्रेम प्रीति राखौं उरभाई॥२॥
इत मन मंदिर रहौ नित चोषै, कहै कबीर परहु मति घोषै॥३॥

भावै = भला जान पड़े। चोषै = ढंग के साथ। परहु घोषै = सुके पुनः त्याग देने के धोखे में आ जाना।

(२४)

अभीष्ट सिद्धि

अब हरि हूं अपनी करि लीनौ।
प्रेम प्रवति मेरौ न भीनों॥टेक॥
जरै सरीर अंग नहीं मोरीं, प्रान जाइ तौ नेह न तोरों॥१॥
यंतामणि क्यूं पाइये ठोली, मन राम लियौ निरमोली॥२॥
ब्रह्मा खोजत जनम गँवायौ, सोई राम घट भीतर पायौ॥३॥
कहै कबीर छूटी सब आसा, मिल्यौ राम उपज्य बिसवासा॥४॥

ठोली = बिना मूल्य। निरमोली = अनमोल।

(२५)

प्रेम रहस्य

अकथ कहाणी प्रेस की, कछु कही न जाई।
गूंगे केरी सरकरा, बैठे मुसकाई॥टेक॥