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संत-काव्य

भोमि बिना अरु बीज बिन, तरवर एक भाई।
अनंत फल प्रकासिया, गुर दीया बताई॥१॥
मन थिर वैसि विचारिया, रामहि त्यौ लाई।
झूठी अमभै बिस्तरी, सब थोथी बाई॥२॥
कहै कबीर सकति छ नाहीं, गुर भया सहाई।
आवण जागी मिटि गई, मन मनहि समाई॥३॥

गूंगे... मुसकाई = शर्करा खाकर मन ही मन स्वाद लेने वाले तथा ऊपर से केवल का भर देने वाले गूंगे की दशा के तुझ्य है। भोमि... बताई = गुरु ने एक ऐसी युक्ति बतला दी जिसके द्वारा बिना किसी क्षेत्र के वार पर (बिना काया की सहायता लिये ही) और बिना बीज के (बिना किसी वासना के) उने हुए वृक्ष (प्राणों) में अनंत फल प्राप्त हो गया। मन वाई = राम में लीन होकर स्थिर मन से जब विचार किया तो न पड़ा कि इसके पहले केवल मिथ्यानुभूति का प्रसार था और सब कुछ बिडंबना मात्र था

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आत्म विचार

जद थे आतम तत विचारा।
तब निरवर या सबहिन में, काम क्रोध महि डारा ॥टेक॥
व्यापक ब्रह्म सदन में एक, को पंडित को जोगी।
राणा व कवन कहिये, कवन वैद को रोगी॥१॥
इनमें आप आप सबहिन में, आप आपहसू खेलें।
भांति बड़े सब भांड़े, रूप धरे धरि मेलें॥२॥
सोच विचारि सबै जग देख्या, निरगुण कोइ न बतावें।
कहे कबीर गुरु अनि पंडित, मिलि लोला जस गावै॥३॥

इन...में इनमें तो आत्मा अनुभूत है ही वह सभी कुछ में उसी प्रकार वर्तमान है। रूप... सेलै = कभी रूप धारण करता और कभी तिरोहित हो जाया करता है। निरगुण बतावे = निर्गुण का भेद