उस 'साहित्यिक स्वाद' से है जो सहृदय व्यक्तियों की रूचि को बढ़ाने वाली काव्य-शक्ति के रूप में अनुभूत होता है। परन्तु उसका एक अन्य अर्थ उन विविध सहानुभूतियों के रूप में भी लिया जाता है जो किसी काव्प में लक्षित होने वाले कवि के विशेष भावों अथवा काव्य रचना के पात्रों के विशेष अनुभवों के साथ संगमन करती हैं। उन्हें कतिपय प्रमुख मानसिक वृत्तियों के रूप में श्रृंगार, वीर, हास्य, अद्भुत शान्त, रौद्र, वीभत्स, करुण तथा भयानक के पारिभाषिक नामों द्वारा नव प्रकार से गिनने की परिपाटी चली आती है। इस दूसरे प्रकार का रस उस न्यूनाधिक स्थायी प्रभाव का परिचायक है जो किसी काव्य के पाठक वा श्रोता के ऊपर पड़ सकता है और उसके मनोभाव में कुछ परिवर्तन लाने में भी समर्थ होता है। इसके विपरीत अलंकार किसी ऐसी रचना के विभिन्न भावों को उनके यथेष्ट रूप में ग्रहण करते समय उनके स्पष्टीकरण में सहायक हुआ करता है। जिस रचना के अंतर्गत रसविशेष का परिपाक इष्ट प्रभाव का उत्पादन न कर सकता हो उसमें रस भंग वा रस दोष आ जाता है और वह कृति अनौचित्य प्रदर्शित करती है।[१] इसी प्रकार जब किसी अलंकार के प्रयोग द्वारा भाव विशेष का अभीष्ट रूप हृदयंगम नहीं हो पाता, अपितु वह केवल चमत्कारवर्द्धक ही सिद्ध होता है, तो वहं एक प्रकार के काव्यदोष का कारण बन जाता है। काव्य के उत्कर्ष का आधार समझी जाने वाली, कतिपय साहित्यज्ञों द्वारा प्रस्तावित, 'ध्वनि' एवं 'रीति' नामक शक्तियों की चर्चा भी क्रमशः रस एवं अलंकार का वर्णन करते समय ही की जा सकती है। क्योंकि ध्वनि एक प्रकार के 'साहित्यिक स्वाद' की ही सृष्टि करती है और अलंकार को भी
- ↑ ध्वनिकार आनन्द वर्धनाचार्य ने इसके विपरीत अनौचित्य को ही रसभंग का कारण बतलाया है जो कुछ भिन्न दृष्टिकोण के कारण है और वह भी ठीक ही है ।