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संत-काव्य

{(२९)

अपना रंग

अपनै में रंगि आपनपौ जानूं।
जिहि रंगि जांनि, ताहीँ कूं मानूं॥टेक॥
अभि अंतर मन रंग समाना, लोग कहैं कबिरा वौराना॥१॥
रंग न चीन्हें मूरिख लोई, जिहि रंग रंग रह्या सब कोई॥२॥
जे रंग कबहू न आवै न जाई, कह कबीर तिहि रह्या समाई॥३॥

जिहि...मानूं = उस रंग में ही जो कुछ मुझे जान पड़ता है उसे मानता हूँ। अभिअंतरि मन रंग समाना = वह रंग मेरे मन के भीतर पूर्णतः व्याप्त हो गया है। रंग इ॰ = मूर्ख लोग अपने रंग की पहचान नहीं कर पाते। जे...जाई = जो रंग स्थायी है।

(३०)

उन्माद की दशा
सब दूनी सयानी में बौरा।
हम बिगरे बिगरी जिनि औरा॥टेक॥
मैं नहि बौरा राम किया दौरा, सत गुर जारि गयो भ्रम मोरा॥१॥
विद्या न पड़ वाद नहीं जानूं, हरिगुन कथत सुनत बौरानूं॥२॥
काम कीच दोऊ भये विकारा, आपहि आप जरै संसारा॥३॥
मीठो कहा जाहि जो भाव, दास कबीर राम गुन गावें ॥४॥

हम बिगरे = मैं तो बिगड़ हो चुका हूं, मेरे बिगड़ने के कारण। बाद नहीं जालूं = वादविवाद करना या शास्त्रों का रहस्य नहीं जानता हूँ। मीठो... भावे = को बात जिसे पसंद है वह उसी को भला कहता है।

पाठभेद—खलक (का॰ ग्रं॰) आपिन (आ॰ ग्रं॰) अंत की इन दो पक्तियों के स्थान पर 'आदि ग्रंथ' में तीन अन्य पंक्तियाँ आती हैं।

(३१)

"ज्ञान की आंधी

संतों भाई आई ग्यान की आंधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उड़ाणी, माया रहै न बांधी॥टैक॥