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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१९२

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प्रारंभिक युग

दुचिते कौ द्वै घूंनी गिरांनी, मोह बलींडा टूटा।
त्रिसना छांनि परी धर ऊपरि, कुंबधि का भांडा फूटा॥१॥
जोग जुगति करि संतो बांधी, निरचू चुबै न पांणी।
कूड़े कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जांणी॥२॥
आँधी पीछे जो जल वूठा', प्रेम' हरी जन भींना।
कह कर भान के प्रगटे, उदित भया तम षीनां॥३॥

माया...बांध = अब माया से बंधी नहीं रह सकती । दुचिते = दुबिधा। धून = छोटे-छोटे खंभे। बलोंडा = म्याल वा बंड़ेरी। धर ऊपरि = पृथ्वी पर। निरचू = न चूने वाली। कूड = निकृष्ट। आन के प्रगटे = ज्ञानोदय के होते ही। उदित भया = मन प्रकाशित हो गया।

पाठभेद—'रहे न माया बाँधी' (आ॰ ग्रं॰) 'हिति चत (क॰ ग्र॰) 'मति 'ये दो पंक्तियाँ 'आदि ग्रंथ' में नहीं आती। 'बरखे (आ ग्रं॰) तिहि तेरा जन भीना। मनि भइला प्रगासा उदे भानु जब चीना (आ॰ ग्र॰)।

(३२)

काया-शुद्धि

अब घटि प्रगट भये राम राई,
सोधि सरीर कनक की नाई॥टेक॥
कनक कसौटी जैसे कसि ले सुनाए।
सोधि सरीर भयो तन सारा॥१॥
उपजत उपजत बहुत उपाई।
मन थिर भयो तबै थिति पाई॥२॥
बाहरि षोजत जनम गंवाया।
उनमनीं ध्यान घट भीतर पाया॥३॥
बिन परचै तन कांच कबीरा।
परचे कंचन भयो कबीरा॥३४॥