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संत-काव्य

साची प्रीति विषै माया सूं, हरि भगतनि सूं हासी।
कहै कबीर प्रेम नहीं उपज्यों, वांध्यों जमपुरि जासी॥३॥

वाद वदंते = व्यर्थ की कथनी में लगे रहते हैं। राम...मीठा = राम कहने मात्र से उसी प्रकार मुक्ति होती है जिस प्रकार खांड कहने मात्र से मुँह मीठा हो जाता है। सूरते आनें = स्मरण कर पाता है।

(३६)

मरण का भाव

को मरे मरन है मीठा, गुर परसादि जिनहीं मरि दीठा॥टेक॥
मूवा करता मुई न करनों, मुई नारि सुरति बहु धरनीं॥१॥
मूवा वा मांन, परपंच लेइ मूवा अभिमान॥२॥
राम रमे रमि जे जल मुवा, कहँ कबीर अविनासी मुवा॥३॥

जे... दीठा = जो कोई भी (संसार की ओर से) मर जाय और गुरु की कृपा से वैसे मरण का अनुभव कर ले उसके लिए वह मृत्यु सदा सुखकर होती है। मूबा...घरनी = इस मृत्यु की दशा में अपने कर्तव्य एवं कार्य की भावना नष्ट हो जाती है और वह माया भी कोई प्रभाव नहीं डाल पाती जो इसके पूर्व विविध रूप धारण कर के, सुंदरी पत्नी की भांति, लुभाया करती थी। परपंच लेइ = प्रपंचों के साथ-साथ।

(४०)

मरण में अमरत्व

हम न मरें मरिहै संसारा। हमकूं मिल्या जियावन हारा॥टेक॥
अब न मरों मरनें सन मांता। तेई मुए जिनि राम न जाना॥१॥
साकत मरै संत जन जीवै। भरि भरि राम रसाइन पी॥२॥
हरि मरिहें तौ हमहूं मरिहें। हरि व भरे हम काहे कू मरिहं॥३॥
कहै कबीर मन मनहि मिलावा। अमर भये सुखसागर पावा॥४॥

हम...संसारा = जीवन्मुक्त की स्थिति में हम अमर होकर