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संत-काव्य

एक एक जिनि जाणियां, तिनही सच पाया।
प्रेम प्रीति ल्यौ लीन मन, ते बहुरि न आया॥२॥
पूरे की पूरी द्रिष्टि पूरा करि देखें।
कै कबीर कछु समझी न परई, या कछ बात अलेखै॥३॥

पषा...पेषणैं = अधूरी सांप्रदायिक दृष्टि से देखने के हो कारण। पर = गधा जो अधिकतर दूसरों के ही संकेतो चला करता है। एक सच पाया = उस एकमात्र परमात्मतत्व की अद्वैतता का जिसे पूरा अनुभव हो गया उसे ही सत्य की उपलब्धि हुई। पूरे...देखे = उस पूर्ण तत्त्व को, उसकी पूर्णता के भाव के साथ, पूर्ण रूप से देखना ही सच्चा देखना है। या अलेखैं = यह बात अपनी अनुभूति पर निर्भर है कुछ लेखबद्ध संकेतों का इसमें काम नहीं।

(४३)

अपनी साधना

उलटि जाति कुल दोज विसारी। सुन्न सहज महि बुनत हमारी॥१॥
हमरा भरा रहा न कोऊ। पंडित मुल्ला छाड़े दोऊ॥टेक॥
बुदि बुनि आप आपु पहिराबों, जहँ नहीं प्राप तहाँ हूँ गाव॥२॥
पंडित मुल्ला जो लिख दीया। छाड़ि चले हम कछु न लीया॥३॥
रिदैहवलासु निषले मीरा। आपु षोजि षोजि मिले कबीरा॥४॥

उलटि...हमारी = सहज शून्य की साधना में निरत हो मैंने अपनी जाति तथा कुल को नष्ट कर दिया और दोनों धर्मों को भी भुला डाला। बुनि...गावौं में स्वयं अपने को वस्त्रवत् बुना करता हूँ और फिर उसे स्वयं धारण कर लेता हूं अर्थात् में सदा आत्मचिंतन में निरत रहता हूँ और उसके परिणाम का आत्मज्ञान भी करता चलता हूं, फिर भी अहंभाव से परे होकर ही गाया करता हूँ। रिदै...मीरा परमात्मा को वास्तविक प्रेम के साथ हृदय में देखो। आयु = निज रूप में।

(४४)

विषय-वासना

बिबिया अजहूं सुरति सुख आसा।