साँचा:Running header इसी प्रकार, वस्तुतः वर्णन शैली के एक ढंग विशेष से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता।
हिंदी काव्य धारा
हिंदी काव्य का इतिहास कम पुराना नहीं है। अपभ्रंश एवं प्राचीन हिंदी की वेश-भूषा में इसके उदाहरण विक्रम की ९वीं शताब्दी से ही मिलने लगते हैं जिनमें से कुछ तो प्रबंध काव्य हैं और दूसरे फुटकर पदों आदि के रूपों में दीखते हैं। उस काल से हिन्दी भाषा का क्रमश: निखरना आरंभ हो जाता है और उसका वास्तविक हिंदी रूप विक्रम की १३वीं शताब्दी में जाकर प्रकट होता है। इस समय तक रची गई काव्यों की सबदियों, चारणों के छप्पयों, भक्तों के पदों तथा अज्ञात कवियों की प्रेम-कहानियों में हमें इसके अनेक शब्द एवं वाक्य कुछ परिचित से समझ पड़ने लगते हैं और प्रतीत होने लगता है कि अब हम किसी सुविदित क्षेत्र में पदार्पण कर रहे हैं। इस समय अपनी चारों ओर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि हिंदी काव्य की सरिता एक से अधिक स्रोतों में प्रवाहित हो रही है जिनके मूल उद्गमों की परंपराएँ भिन्न-भिन्न हैं। उदाहरणार्थ यदि एक का लगाव योग तथा सांप्रदायिक विषयों से है तो दूसरे का श्रद्धा एवं भक्ति के साथ है। इसी प्रकार यदि एक अन्य का संपर्क प्रेमाख्यानों से है तो दूसरे का वीरगाथाओं तथा कीर्तिमान के साथ है। इसी बात को यदि साहित्यिक शब्दावली द्वारा व्यक्त किया जाय तो कह सकते हैं कि प्रथम दो प्रकार की रचनाएँ यदि शांतरस-प्रधान हैं तो तीसरे प्रकार की श्रृंगाररस-प्रधान। उसी प्रकार उक्त अंतिम दो की गणना हम वीररस प्रधान काव्यों में कर सकते हैं। कहना न होगा कि उपयुक्त विषय किसी न किसी रूप में हमारे हिंदी-काव्य के प्रमुख वर्ण्य वस्तु बनकर प्राय: ८०० वर्ष और आगे तक