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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२००

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प्रारंभिक युग

हूँण न देइ हरि के चरन निवासा॥टेक॥
सुख मांगत दुख पहली आवै, साथै सुख मांग्या नहीं भावे॥१॥
जा सुख थै सिव विरंचि डराना, सो सुख हमहू साच करि जाना॥२॥
सुखि छांड्या तब सब दुख भागा, गुरके सबद मेरा मन लागा॥३॥
बिस वासुरि विषैतना उपगार, विषई नरकि न जातां वार॥४॥
कहै कबीर चंचल मति त्यागी, तब केवल रामनाम ल्यौ लागी॥५॥

विषया...निवासा = आज भी विषयों की स्मृति (वासना) बनी हुई है जो सुख की आशा में हरि के निकट ठहरने नहीं देती। सो...हम = उसी सुख को मैंने। सुखि सुइ छाड्या = वैसी सुखाशा को त्यागने पर ही। बिना उपगार = विषयों द्वारा उपकृत वा प्रभावित होते रहते हैं।

(४५)

हरि का जन

तेरा जन एक आध है कोई।
काम क्रोध अरु लोभ विवर्जित, हरिपद चीन्हे सोई॥टेक॥
राजत तामस सातिग तीन्यूं, ये सब तेरी माया।
चौथे पदकौं जो जन चीन्हें, तिनहि परम पद पाया॥१॥
अस्तुति निंद्या आसा छोड़े, तजै मान अभिमाना।
लोहा कंचन समि करि देखें, ते सूरति भगवाना॥२॥
च्यंते तौ भाव च्यंतामणि, हरिपद रमै उदासा।
त्रिस्ना अरु अभियान रहित है, कहै कबीर सो दासा॥३॥

चौथे पद = परमात्मा के परात्पर रूप को। उदासा = संसार की ओर से अनासक्त होकर।

(४६)

हरि का भक्त

राम भजै सो जानिये, जाकै आतुर नाहीं।
संत संतोष लीयै रहै, धीरज मन माहीं॥टेक