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संत-काव्य

चारि वेद चहुँ मन का विचार, इहि भ्रमि भूलि परचौ संसार॥
सुरति सुमृति दोइ को बिसवास, बाझि परचौ सब आसापास॥१॥
ब्रह्मादिक सनकादिक सुरनर मैं बपुरौं धूं का में काकर॥
जिहि तुम तारौ सोई पै तिरई, कहै कबीर नाँ तर बाँध्यौ मरई॥२॥

सुरति सुमृति = श्रुति-स्मृति। ब्रह्मादिक...काकर = जब ब्रह्मादि देवता तक उस भ्रम में पड़े हैं तो मुझ बेचारे का क्या कहना।

(५१)

वह सब से परे

संती धोखा कासूं कहिये।
गुणमं निरगुण निरगुण मैं गुणहै, बाट छांडि क्यूं बहिये॥टेक॥
जरा अमर कथं सब कोई, अलख न कथणां जाई।
ना तिस रूप वरण नहीं जार्क, घट घट रह्यौ समाई॥१॥
प्यंड ब्रह्मंड कथं सब कोई, बार्क आदि अरु न होई।
व्यंड ब्रांड छाड़ि जे कथिये, कह कबीर हरि सोई॥२॥

गुण में...बहिये = सगुण में निर्गुणत्व का आरोप एवं निर्गुण के लिए सगुणत्व की भावना स्वाभाविक है। इसे त्याग दोनों में से किसी भी ओर बहना ठीक नहीं। अजराजाई = उस लक्ष्य के लिए जर अमर, आादि कहना भी उपयुक्त नहीं। प्यंड...सोई = उसे पिंड वा ब्रह्मांड की सीमा से परे कहना संगल हो सकता है

(५२)

सवत्र बहो

हम तौ एक एक करि जाना।
दोइ कहे तिनही की 'दोजन, 'जिन नाहिन पहिचाना अटेक॥
एकै पवन एकही पानी, एक जोति संसारा।
एकही खाक घड़े सब भांडे, एकही सिरजन हारा॥१॥
जैसै बाढ़ी काष्टही काटै, अगिति न काटै कोई।
सब घटि अंतरि तूंही व्यापक, घरै सरुपै सोई॥२॥