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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२०६

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प्रारंभिक युग

 

(५७)

गर्वजनित भ्रम

रंजसि मीन देखि बहु पानी।
काल जाल की खबरि न जानी॥टेक॥
गारै गरव्यौ औघट घाट। सो जल छाड़ि बिकानौ हाट॥१॥
बंध्यौं न जानैं जल उदमादि। कहै कबीर सब मोहै स्वादि॥२॥

रंजसि...प्रसन्न हो रही है। गारे...घाट = कम नीची जमीन के भी पानी में औघट घाट के कारण उसे गर्व हो गया। सो...हाय = उस जल से पृथक करके वह बाजार में बेंच दी गई। बंध्यौ....उदनादि = जल में रहने के कारण उसे घमंड था और वह अपने को बंधन में पड़ी हुई नहीं मानती थी। सब मोहे स्वादि = सभी स्वाद वा वासना के कारण भ्रम में पड़ जाते हैं वा पड़े हुए हैं।

(५८)

नश्वरता

रे यामै क्या मेरा क्या तेरा।
लाज न भरहिं कहत वर मेरा॥टेक॥
चारि पहर निस भोरा, जैसे तरबर पंषि वसेरा॥१॥
जैसे बनिये हाट पसारा, सब जग का सो सिरजनहारा॥२॥
ये ले जारे के ले गाड़े, इन दुखिइनि दोऊ घर छाड़े॥३॥
कहत कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम्ह विनसि रहेगा सोई॥४॥

(५९)

मन का भ्रम

अंधे हरि बिन को तेरा।
कदनसूं कहत मेरो मेरा ॥टेक॥
तजि कुलाक्रम अभिमाना, झूठे भरमि कहा भुलाना।
झूठे तनकी कहा बड़ाई, जे. निमष माहि जरि जाई॥१॥
जब लग मनहि विकारा, तब लगि नहीं छूटै संसारा।
जब मन निरमल करि जाना, तब निरमल मांहि समाना॥२॥

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