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संत-काव्य

ब्रह्म अगति ब्रह्म सोई, अब हरि बिन और न कोई।
जब पाप पुंनि भ्रम जारी, तब भयौ प्रकास मुरारी॥३॥
कहै कबीर हरि ऐसा, जहाँ जैसा तहाँ तैसा।
भूलै भरमि मरै जिनि कोई, राजाराम करै सो होई॥४॥

तजि...अभिमाना = कुल क्रमागत गर्व का परित्याग करो। निरमल = विशुद्ध। निरमल = विशुद्ध तत्व, परम तत्व। ब्रह्म प्रगति सोई = ब्रह्माग्नि तथा ब्रह्म में कोई अंतर नहीं, ब्रह्माग्नि द्वारा सभी मनोविकार जल जाते हैं और मन सब प्रकार से निर्मल तथा विशुद्ध होकर ब्रह्ममय हो जाता है। पाप...जारी = पाप एवं पुण्य की भावनाएं भ्रमजन्य है और वे भी उक्त ब्रह्माग्नि के प्रकाश में पड़कर नष्ट हो जाती हैं। हरि...तैसा = हरि का स्वरूप, परिस्थिति सापेक्ष होकर, भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है। भूलै कोई = इसके भ्रम में (उसके सापेक्ष प्रतीत होने के कारण भ्रांति में) किसी को भूल कर भी नहीं पड़ना चाहिए।

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एकांत निष्ठा

डगमग छाड़ि दे मन बौरा।
अब तौ जरें बरें बनि आवै, लीन्हो हाथ सिंधौरा॥टेक॥
होइ' निसंक मगन ह्वै नाचौ, लोभ मोह भ्रम छाड़ौ।
सूरौ कहा मरन थें डरपै, सती न संचे भांड़ौ॥१॥
लोकबेद कुलकी मरजादा, इहै गलै में पासी।
आधा चलि करि पीछा फिरिहै ह्वै है जगमें हासी॥२॥
यहू संसार सकल है मैला, राम कहँ ते सूचा।
कहे कबीर नाव नहीं छाड़ों, गिरत परत चढ़ि ऊँचा॥३॥

डगमग = अमस्थिरता वा चंचलता, संशय की वृत्ति। अब....सिंधौरा = जब तूने आत्मोपलब्धि का व्रत अंगीकार कर लिया तो तुझे अब अपने को जला कर समाप्त कर देने में ही अपना कुशल है। सती भांडौ = सती स्त्री कभी संपत्ति का संचय नहीं करती।