पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९८
संत-काव्य


सतगुर की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार।
लोचन अनँत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार॥२॥
पीछ लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगे थें सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥३॥
पासा पकड़या प्रेम का, सारी किया सरीर।
सतगुर दांव बताइया, खेले दास कबीर॥४॥
भगति भजन हरिनांव है, दूजा दुक्ख अपार।
मनसा वाचा कमनाँ, कबीर सुमिरण सार॥५॥
मेरा मन सुमिरै रामकूं, मेरा मन रामहि अहि।
अब मन रामहिं ह्वै रह्या, सीस नवाबों काहि॥६॥
तूं तूं करता तूं भया, मुझमै रही न हूं।
बारी फेरी बलि गई, जित देखौ तित तूं॥७॥
बासुरि सुख ना रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहि।
कबीर बिछ्ट्या रामसूं, ना सुख धूप न छाँह॥८॥
बिरह भुंवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम वियोगी ना जिवै, जिवै त बौरा होइ॥९॥
सब रंग तंत रखाव तन, बिरह बजावै नित्त।
और न कोई सुणि सकै, कै साई के चित्त॥१०॥
इस तनका दीवा करौं, बाती मेल्यूं जीव।
लोही सींचौं तेल ज्यू, कब मुख देखौं पीव॥११॥
सोई आंसु सजणां, सोई लोक बिडांहि।
जे लोइण लोही चुवै, जांणौं हेत हियाहिं॥१२॥

१. सवाँ, सई = समान। सोधी = चित्त शुद्धि। (दे॰ "सत गुर थे सोधी भई, तब पाया हरिका षोज" (क॰ ग्रं॰, पृष्ठ ३ टि॰)। दाति = दीक्षा, उपदेश, देन। ३ दीपक = प्रतिभा ज्ञान। ४ पासा पल्ला। सारी = चौसर की गोट। ५. कमना = कर्मोंद्वारा। ६.(दे॰ 'मणु मिलियउ