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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२१२

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प्रारंभिक युग

परमेसर हो, परमेसरु जिमणस्स। विण्णिनि समरप्ति हुई रहिय पुज्ज चडावउं कस्त—मुनिरामसिंह पा॰ दो॰ ४९)। ७. वारी केरी = निछावर कर दिया। बलिगई = बलिहारी गई। क वासुरि = दिन में। १०. रंग = शरीर की नरें। तंत = तांत। रबाब = एक प्रकार का बाजा। (३० जायसी, "हाड़ भए सब किगरी नसे भई सब ताति" (जा॰ ग्रं॰, पृष्ठ १७४)। ११. बाती...जीव = प्राणों की बत्ती डाल दूं। लोही = लोहू, रक्त तेलज्यू = तेल की भांति। १२. सजणा = अपने लोगों वा स्वजनों का लोक विडाहि = पराये लोगों का। जेहियाहि = यदि आँखों से लहू टपकने लगे तो समझों कि हृदय में प्रेम है।

विरह जलाई में जलों, जलती जलहरि जाऊ
मो देख्या जल हरि जलै, संतो कहां बुझाऊ॥१३॥
हिरदा भीतर दौं बलै, धूनां न प्रगट होइ।
जाकै लागी सो लखै के जिहि लाई सोइ॥१४॥
कबीर तेज अनंत का, साली ऊगी सूरज सेणि।
पति सँगि जागी सुंदरी, कॉलिंग दीठा तेणि॥१५॥
अंतरिकवल प्रकासिया, ब्रह्मवास तहां होड़।
सन भँवरा तहाँ लुवधिया,जाणेगा जन कोइ॥१६॥
मन लागा उनमन सौ, उनमन मनहि विलग।
लूंग बिलगा पॉणियां, पाणी लूण विलग॥१७॥
पाँणी ही लें हिम भया, हिम है गया बिलाइ।
जो कुछ था सोई भया, अब कछू कह्या न जाइ॥१८॥
जब में था तब हरि नहीं, अब हरि है में नाहि।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दोषक देख्या मांहि॥१९॥
सबै रसाइण में किया, हरिसा और न कोई।
तिल इक घट में संचर, तौ सब तन कंचन होई॥२०॥
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
बूंद समानी समद मैं, सो कत हेरी जाइ॥२१॥