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संत-काव्य


हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
समंद समाना बूंद मैं सो कत हेरया जाइ॥२२॥
नैनाँ अंतरि आव तूं, ज्यूँ हौं नैन झँपेउं।
नां हीं देखों और कूं, ना तुझ देखन देउं॥२३॥
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै मेरा॥२४॥
कबीर सीप समंद की, रटै पियास पियास।
समदहि तिणका बरि गिणै, स्वाति बूंद की आस॥२५॥

१३. जलहरि = जलाशय तक। १४. दौं = अग्नि, ज्ञान विरह १५. सेणि = श्रेणी १६. तेणि = उसने। १७. उनमन = मनका अभीष्ट परमतत्त्व विलग = मिल गया। (दे॰ "कंठ विलग्गी भार वी, करि कंचूना दूर" ५५१ तथा "निसि भरि सूती सुंदरी, वालँभ कंठ बिलग्गि" अथवा “खरी बिलग्गी खंति—'ढोला मारूरा दूहा) और दे॰ "लवणो जिम पाणीहि विलिज्जइ"—सरह (दो॰ को॰)। २३८। २०. रसाइण = कायाकल्प की किया। २१. हेरत हेरत = ढूंढ़ता ढूंढ़ता। हिराइ = खो गया। (दे॰ "बुंबहि समद समान" इ॰ जायसी (अखरावट)। २३. ज्यू...पेज = ताकि में अप आँखें बंद कर दूं। २५. समदहि....गिणे = समुद्र को भी तृणवत् तुच्छ मानता है।

जे वो एकै जांणियां, तौ जाग्यां सब जांण।
जे वो एक न जांणियां तो सबही जांण अजांण॥२६॥
उस समय का दास हाँ, कदे न होइ अकाज।
पतिव्रता नाँगी रहै, तौ उसही पुरिस कौं लाज॥२७॥
कबीर धूलि सकेलि करि, पुड़ी ज बांधी एह।
दिवस चारि का पेषणाँ, अंति षेह की बेह॥२८॥
खंभा एक गइंद दुई, क्यूं करि बंधिसि बारि।
मानि करै तौपीद नहि, पीव तौ मानि निवारि॥२९॥