निरमल बूंद अकास की, पड़िगई भोमि विकार।
मूल विनंठा मानवी, बिन संगति भठछार॥४८॥
निरबैरी निकामता, सांई सेंती नेह।
विषियाँ सूं न्यारा रहै, संतानि का अंग एह॥४९॥
३८. गिले = गिर गए। ३९. अंकमाल = अँकवार, गले मिलाकर। ४०. नेडा = निकट। ४२. पाँच...परसती = पंचेंद्रियों को परमात्मा को स्पर्श करती हुई अर्थात् उसका सदा अनुभव करती हुई रखे। (दे॰ "युञ्जन्नैव सेवं सदात्मानं योगो विगत कल्पषः। सुखेन ब्रह्म संस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते"—गीता (६-२८)। ४३. प्रतषि = प्रत्यक्ष, मतिमान्। ४५. मनका = माला के दाने। ४६. सांईसंती = परमात्मा के साथ। आरशू सुभाइ = अन्य सब के साथ शुद्ध व्यवहार रखो। घुरड़ि मुड़ाई = सभी बाल मुंडाली। ४७. निसनेही = अनासक्त। (दे॰ " मत कम वचन छोडि चतुराई। भजतहिं कृपा करहिं रघुराई"—तुलसीदास)। ४८. भोमि विकार = धरती की धूलादि में। सूल... मानवी = परमात्मा से पृथक् पड़ गया हुआ मनुष्य। भठछार = भट्ठे की जली हुई धूल। ४९. विवियासूं रहे = विषयों से अनासक्त। अंग = लक्षण।
अणरता सुख सोवणां, रातै नींद न आई।
ज्यू जल टुटै मंछली, यूं बेलंत बिहाइ॥५०॥
जदि बिषै पियारी प्रीतिसूं, तब अंतरि हरि नाहि।
जब अंतर हरिजी वसे, तब बिषिया सूचित नाहिं॥५१॥
बीर रूप हरि नांव है, नीर आन व्यौहार।
हंसरूप कोई साध है, तत का जांनणहार॥५२॥
ग्रिही तौ चयंता घणी, वैरागी तौ भीष।
दुहु कात्यां विचि जीवहै, दोहरै संतौ तीष॥५३॥
ऐसी वाणी बोलिये, मनका आपा खोय।
अपना तन सीतल करैं, औरन कौं सुख होय॥५४॥