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संत-काव्य


च्यंतामणि मनमैं बसैं, सोई चितमैं आँणि।
बिन च्यंता च्यंता करैं, इहै प्रभू की वाणि॥५५॥
मांगण मरण समान है, बिरला वंचै कोइ।
कहै कबीर रघुनाथ सूं, मतिर मंगावै मोहि॥५६॥
जाक मुंह मांथा नहीं, नहीं रूप करुप।
पुहुप दासथैं पतला, ऐसा तत अनूप॥५७॥
नीर पिलावत क्या फिरै, सायर घर घर बारि।
जो त्रिषावंत होइगा, पीवेगा झष मारि॥५८॥
सल गंठी कोपीन है, साथ न मानै संक।
राम अमलि माता रहै, गिणै इंद्र कौं रंक॥५९॥
दावै दाझण होत है, निरदावै निसंक।
जो नर निरदायैं रहैं, ते गिणैं इंद्र कौं रंक॥६०॥

५०. आणरता...आइ = जो अनुरक्त नहीं वह सुखपूर्वक सोता है, किंतु जो अनुरक्त है उसे नींद नहीं आती। वेलंत विहाइ = तड़पता हुआ बिहान करता है। (दे॰ "ओछइ पांणी मच्छ ज्यउ बेलत भयज विहान—ढोला॰ १९२)। ५१ अंतरि = भीतर, हृदय में। ५२. पीर = दूध। प्रांत = अन्य सभी। ५३. च्यंता वणी = अनेक साँसारिक व्यवहार की चिंताएं। काय = कतरनियों के दोहने....सीष = संत दोनों को अर्थात् गृह में वैराग्य को अपनाते हैं। ५५. विनयता = चिंता न करने वाले की ५६. मतिर मंगावै मोहि = अजी, (में प्रार्थना करता हूं) मुझसे न मंगवावो ५७. रूप करूप = अच्छा वा बुरा रूप। ५८. सायर = सागर वा जलाशय। वारि = द्वार पर। झष मारि = विवश होकर। ५९. सतगंठी = सौ ग्रंथियाँ जिसमें लगी हों। कोपीन = लंगोटी। (दे॰ "गाँठी सत्त कुपीन में, सदा फिरे निःसंक। नाम असल माता रहे, गिने इन्द्र को रंक"—मलूकदास ('बानी', पृष्ठ ३३)। ६०. दावे...है सब कहीं अपना स्वत्व स्थापित करते फिरने में ही जलन वा उद्वेग की आशंका रहती है। (यहाँ पर