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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२१८

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प्रारंभिक युग


'दावा' शब्द दावाग्नि बोधक होने के कारण, श्लिष्ट भी कहा जायगा)।

सांई सूं सब होल है, बंदे थैं कुछ नाहिं।
राई थें परबत करै, परबत राई माँहि॥६१॥
कबीर न मृतक भया, दुरबल भया सरीर।
तब पैंडे लगे हरि फिरै, कहत कबीर कबीर॥६२॥
जीवन थैं मरिबो भलो, जौ मरि जानैं कोई।
मरनै पहली जे मरें तो कलि अजरावर होई॥६३॥
आपा मेट्यां हरि मिलै हरि मेट्यां सब जाइ।
अकथ कहाणी प्रेम की कह्यां न को पतियाइ॥६५॥
बुरा बुरा सबको कहै, बुरा न दीसै कोइ।
जे दिल षोजी आपणौं, तौ मुझसा बुरा न कोइ॥६५॥
ऐसा कोई ना मिलैं, राम भगति का मीत‌।
तनमन सौंपै मृग ज्यू, सुनै वधिक का गीत॥६६॥
ऐसा कोई ना मिलै, जासौं रहिये लागि।
सब जग जलताँ देखिए, अपणीं अपणीं आगि॥६७॥
हम घर जाल्या आपणां, लिया मुराडा हाथि।
अब घर जालौं तासका, जे चलें हमारे साथि॥६८॥
सूरा तबही परबिये, लडें बणी के हेत।
रिजा पुरिजा है पड़े, तऊ न छाडै खेत॥६९॥
जिस मरनै थैं जग डरैं, सो मेरे आनंद।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥७०॥
कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध।
सीस उतारि पग तलि घरै, तब निकट प्रेम का स्वाद॥७१॥
जेते तारे रैणिके, तेतै वैसे मुझ।
धड़ सूली सिर कंगुरै तऊ न बिसारौं तुझ॥७२॥

६२. मन मृतक भया = मन का निःस्वभावीकरण हो गया और चंचलता