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संत-काव्य

चरन कमल की मौज को, कहि कैसे उनमान।
कहिबे कौ सोभा नहीं देखा ही परवान॥८९॥
चुगै चितारै भी चुगै, चुगि चुगि चिलाएँ।
जैसे बचरहि कुंज मन, माया नमारे॥९०॥
कबीर जाको खोजते, पायो सोई ठौर।
सोई फिरि कै तूं भया, जाकौ कहता और॥९१॥
मुहि मरने का चाड है। मरौं तो हरिके द्वार।
मत हरि पूछैं कौन है, परा हमारे बार॥९२॥
हरि है खांडु रेतु महि बिखरी, हाथी चुनी न जाइ।
कहि कबीर गुरु भली बुझाई, कीटी होइके खाइ॥९३॥

८७. ताता = गर्म किया हुआ। संधि = जोड़ का स्थान ८८. रंकु...कोइ = किसी गरीब पर मत हंसो। अजहू...होइ = अभी तो तुम्हारा जीवन संसार में व्यतीत ही हो रहा है, अभी क्या पता है कि इसका अंत कैसा होगा। ८९. चरन ...उनमान = परम पद में लीन हुए व्यक्ति को जिस उल्लास का अनुभव होता है उसका अनुमान ठीक-ठीक नहीं किया जा सकता। परवान = प्रसाण, यथार्थ। ९०. चुगै....रे = जिस प्रकार कुंज पक्षी दाने चुगता है, फिर चुगता है और बच्चों को चिन्ता करता भो रहता है उसी प्रकार मन विषयों में लगा हुआ भी कभी-कभी चिंतन कर लेता है। (दे॰ "चुगइ चितारइ भी चुगइ, चुगि चुगि चितारेह। कुरभी बच्चा मेल्हिकड, दूरि यहाँ पालेह"—ढोला॰, २०२)। चितारं = स्मरण करता है। भी = फिर वचरहि = विचरण करता है। ९१. और = भिन्न। ९२. मुहि = मुझे। चाउ = अभिलाषा। मत = यह समझ कर कि कभी तो ऐसा होगा कि पूछे = पूछ लेगा। बार = द्वार पर। ९३...खांडु = चीनी। रेतु = बालू, माया। हाथी = मतवाले मन से। कोटी...खाई = युक्तिपूर्वक चींटी के समान छोटा होकर उन्हें प्राप्त करो।