मारे बहुत पुकारिया, पीर पुकारै और।
लागी चोट मरम्म की, रह्यो कबीरा ठौर॥९४॥
भूरों कौ का रोइये, जो अपने घर जाइ।
रोइए बंदीवान को जो हाटै हाट बिकाइ॥९५॥
खाइ = युक्तिपूर्वक चींटी के समान छोटा हो कर, उन्हें प्राप्त करो। ९४. मारे = मार पड़ने पर। बहुत = बहुत लोग। पीर = दर्द के कारण। और अन्य लोग। मरम्मकी मर्म की गठरी। ठौर = जहाँ का तहाँ। ९५. मूरों = जीवन्मृतकों वा मुक्तों। बंदीवान को = संसार में बद्ध पुरुष को।
संत पीपाजी
पीपाजी भी, सेना नाई की भांति, स्वा॰ रामानंद के शिष्यों में समझे जाते हैं और प्रसिद्ध है कि ये उनके साथ कई तीर्थों में भी गये थे। परन्तु इस बात का कोई ऐतिहासिक विवरण अभी तक उपलब्ध नहीं है और न पीपाजी ने ही इसे कहीं पर स्वीकार किया है। डा॰ फर्कूहर ने इनके जन्म का सं॰ १४८२ दिया है किंतु कनिंवम ने गागरीन राज की वंशावली के आधार पर इनका समय सं॰ १४१७-१४४२ ठहराया है। पीपाजी की अपनी उपलब्ध रचनाओं द्वारा अनुमान होता है कि ये कबीर साहब के एक बड़े प्रशंसक समसामयिक व्यक्ति थे। मेवाड़ के इतिहास द्वारा यही पड़ता है कि ये राणा कुंभा (सं॰ १४७५-१५२५) के समकालीन रहे होंगे और इस प्रकार भी, ये कबीर साहब से छोटे होते हैं। पीपाजी गागरौनगढ़ के राज-वंश के थे और ऐश्वर्य सम्पन्न थे, किन्तु इन्हें साधु-सेवा की भी लगन थी। ये पहले भवानी के उपासक थे और कुछ वैष्णवों के सम्पर्क में आकर स्वा॰ रामानंद के सिद्धांतों से भी प्रभावित हो गए थे। इनकी स्त्री का भी इनके साथ तीर्थ-यात्रा में द्वारका तक जाना और वहां पर दोनों का समुद्र में प्रवेश करना तथा वहाँ से लौटकर किसी मंदिर में आमरण निवास करना प्रसिद्ध है।