इनकी रचनाओं के एकाध संग्रह 'पीपाजी की बानी' नाम से सुने जाते हैं, किन्तु वे प्रकाशित रूप में उपलब्ध नहीं हैं। इनका एक पद 'आदिग्रंथ' के अंतर्गत, धनासरी राग के पदों में दिया गया हैं जिसमें जो पिंड में है वह ब्रह्मांड में है' का विषय आया है। काया के महत्त्व का वर्णन इस पद में बड़े स्पष्ट शब्दों में, किया गया है और साथ ही इसमें परमतत्त्व की अनुभूति के लिए सद्गुरु की सहायता का भी उल्लेख हैं। इनकी विचार धारा का पूरा परिचय अधिक रचनाओं के प्राप्त होने पर मिल सकता है।
पद
कायउ देवा काइउल देवल, काइअउ जंगम जाती।
काइअउ धूप दीप नइवेदा, काइअउ पूजउ पाती॥१॥
काइआ बहु षंड षोजते, नवनिधि पाई।
नाकुछ आइबो ना कछु जाइबो, रामकी दुहाई॥रहाउ॥
जो ब्रह्मंडे सोई पिंडे, जो षोजै सो पावै।
पीपा प्रणवै परम तत्तु है, सतिगुरु होइ सषावै॥२॥
जंगम जाती = वर कोटि के प्राणी। बहुषंड षोजते = अनेक भागों के भीतर पर्यवेक्षण करने पर। जो ब्रह्मंडे सोई पिंडे = पिंड वा शरीर वस्तुतः पूरे ब्रह्मांड का ही लघु रूप है। पीपा....है = परमतत्त्व ही वास्तविक पदार्थ है जिसके समक्ष पीपा नतमस्तक हो रहा है। सतिगुरु....लषावे = उसकी अनुभूति केवल सद्गुरु की सहायता द्वारा ही संभव है।
संत रैदासजी
संत रविदास वा रैदासजी के जीवनकाल की तिथियाँ अभी तक निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। परन्तु इतनी बात उनकी रचनाओं से भी स्पष्ट हैं कि वे जाति के चमार थे तथा उनके परिवार के लोग काशी के आसपास 'ढोरों के ढोने' का व्यवसाय किया करते थे।