जुगति का प्रायः अभाव सा ही दीखता है। एकांत निष्ठा, सात्त्विक जीवन, विश्वप्रेम, दृढ़ विश्वास और आत्मसमर्पण के भाव ही उनमें अधिक पाये जाते हैं। रैदासजी की कथन शैली के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण उनकी उन आग्रहपूर्ण प्रार्थनाओं में मिलते हैं जो आत्मसंवेदन के साथ की गई है। उनकी भाषा पर कहीं-कहीं फ़ारसी का भी प्रभाव लक्षित होता है।
पद
(१)
बिनु देषे उपजैं नहीं आसा, जो दीसै सो होइ विनासा।
बरन सहित जो जापै नामु, सो जोगी केवल निकामु॥१॥
परचै रामु रबै जउ कोई, पारसु परसै दुविधा न होई॥रहाउ॥
सो मुनि मनकी दुविधा पाइ, बिनु दुआरे त्रैलोक समाइ।
मनका सुभाउ सभु कोइ करें, करता होइ सु अनभै रहे॥२॥
फल कारन फूली बनराइ, फल लागा तब फूलु बिल्हाइ।
गिआने कारन करम अभिस, मित्रानु भइया तब करमह नासु॥३॥
घ्रित कारन दधि सथै सइआन, जीवत मुक्त सदा निरबान।
कहि रविदास परम वैराग, रिदै रामु कीन जपिसि अभाग॥४॥
परचै = स्वानुभूतिपूर्वक जान व समझ कर। दुविधा षाइ = संशय-रहित हो जाता है। बिनु दुआरे = सहज ही। करता...रहे = स्वानुभूति वाला हो वास्तविक करने वाला है। बनराइ = वृक्षों का समूह। विल्हाइ = लुप्त हो जाता है। सइआन = चतुर लोग। कीन = क्यों नहीं।
पाठभेद—'जे दीसे ते सकल विनास, अनदीठे नाही विसवास', 'बरन कहंत कहै जे राम, सो भगता केवल निःकाम', 'या रस', 'सो मन कौन जो मन को खाइ, दिन छोरै तिरलोक समाइ', 'मन की महिमा सब कोइ कहूँ, पंडित सो जो अनते रहे।