पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२२८

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इरंभिक युग २१५ A सोई नाम अंतर करि हरिसोंअपमरण को अनै । कइम झोध मद लोभ सोही, पल पल पूजा ठा) है।१। सत्य सह ठ अंक लावेंअस्थल अस्थल खेलें । जो कुछ मिले अान अखतसों, सुत दारा सिर मेले ।२। हरिजन हरिह और ना जाने, तब अनि तन स्यागी। कह रैदास सोई उन निर्भ ल, मिसिदिन जो अनुरागी !३। अनिल के अनन्य ' जब ..सिरजत ८ जब तक मन की प्रवृत्तियां चंचल रहा करती हैं मैं सोई ...सों = वही मन हरि से विलग होकर । आन प्रावत = अन्न तथा अक्षत अर्थात् चबल इत्यादि। बा पूजन (७) इधुबछथन विटोरिड। चरि, जलु मनि बिगारिड 1१।। माई गोविद जो कहा चवड। अवरु न फू अमू न पाबड ।रही। मलागर वेहे है भुइखंगम बिधु अंत्रितु ब सह इक्ष संगा।२। भूपदीप नई वेदहि वास कैसे पूज कहि तेरी बासा ५३। समु मनु अरपछ पूज चराबई। गुर परसादि मिररंज पावड ।।४1। पूजा अरचा आदि न तोरीकह रविदास कवन गति मोरो ।५। विटारिड = जठा कर दिया । भवरि = । रबड = चढा बरे ने । मैलागर - मलयागिरि ! बेहे = लिपटे हैं । भुइअंग = भुजंगसर्च । बासा : सूध लिया है। जल आ = पूजा। पाठभेद-धनहर ट्ध जो बछरू जारी, मलयागिर बेधियो भुजंगा, पूजा अरचा न जानू तेरो, ‘पक्षोप ..ज्ञासा ' की जगह 'सन ही । पूजा मन ही यूपसन ही लेटें सहज सरूप’ पाठ भी आता है। ध्यान की साधना (८) ऐसा ध्यान घरों वो बनवारी] मन पवन दे सुखमन नारी टेक। सो जप ज जो बहुरि न जपना । सो तप तपाँ जो बहुरि न तपना ।१।