पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२३२

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रंभिक युण २१९ पड‘जब हम ढ़ते तब तुम , अब आम हो हम नाहीं, ‘सरिता गबन कियो हर महोदधि' ‘नरपति एक से ज सुख - सा, समुझि पर सोहि व नक अलंकृत,करता एक जाध जग भुगत’,कह रैदास झगति एकड़ उपजी'।

वेदा रहस्य (१५) सहकी सार सुहागनि जाने, तजि अभिसानु सुष रली ना । सतु मनु वेई न अंतरु राव, वि न सुने अभावें ५१। सो कत जानै पीर पराई। जा अंतरि दरड न अंई ।रहाउ । दुषी वुहागनि हुई पब ही, जिमि माइ निरंतरि भगति म कीनी। पुरष लत का पंशु दुहेला, संगिन न साथी गव इकेला १२ए। दुषोत्रा दरबबंड दरि आइआ, बहुलु पिटास जवाबू न पाइआ। कहि रविदास सरनि प्रभ तेरीजिड जाननू ति 'कम गति मोरी 1३।। सहको सार=साथ रहने का आनंद । श्लोआ क्रमण में । पुरष लात परमात्मा म रत । है पाठभे--सुर की सार सुहागिन जाने, स्याभ प्रेम का पंथ दुहेला, 'बहुत उमेद जवाब न पाया । । अपनी दशा (१६) पावन जस साधो , तुम बारुम अब मोचन मेर। "टेक।। कोरति तेरी पाप विनासेलोक वेद यों गरी। जो हम पाप करत नह भूधर, तो तू कहा नसाब 1१। जब लग अंग पंक नह परसें, तो जल कहा पखारे। मन मलीन विषया रस लंपट, तो हरि नाम संभागे ।२॥ जो हम बिमल हृक्ष्य चित अंतर, दोष कबन पर रही। कह रैदास प्रभु तुम दयाल ही, प्रबंध मुक्ति का करिहो ।३ ॥ आलूध =जो बंधन में नहीं है उसको।