पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२३३

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२९० संतकाव्य । (१७) सब कथु करते कहाँ कर्धा कैसे। गुस विधि बहुत रहत ससि जैसे ।टेक। दस्पन गगन अनिल अलेप जल । गंध जलधि प्रतिबंब देखि तस ।।१। सब आरंभ अक्राम अनेहा। विधि निषेध कीयो अनेकहा २है यह पद तहत सुनत जेहि अभदे । कह रैदास सुकृत को पर्दे ३। अनिल =हवा & ननकेह =अनेक प्रकार के वे सुकृत को पार्टी . सुकृत है। अपनों सया (१८) हेरे देव कमलपति सरन पाया। मु जनम सँहें भ्रम छदि माया ५ क३। अति अपार संसार सेवसागर, जोसे जनम मना संदेह भारी। काम भ्रम क्रोध आम लोभ नम मोह , अनत ने इदि मम करसि यरी ।१। पंच संग मिलि पीड़ियों न यों, जाय न सुथों बैरग भागने । पुत्र बरग कुल बंधु ते भाज। , भरवे दसो दिसा सिर काल लागा है२॥ भगति चितऊं तो मोह दुख व्यापहो, मोह चित्त तो मेरी प्रति जाई। उभय संदेह सोहि रैन दिन व्यापही, दोन बाता कहें कबन उपाई है ३। चपल चंसो नहीं बहुत दुख देखि यो,