पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२३५

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२२९ संतकाश्म जल पाठभेद-- तुम मखतूल चतुरभु’। विनय (२१) कृषु भरिओ जैसे दक्षिा, कछु देस विदेस म बूझकें । जैसे मेरा मनु विखिया विमोरिआ, कलु आरापार न सू 1१४ सगल भबन के नाइका, एक छिलू दरस दिखाइजी रहाउस मलिन भई मति माधवा, तेरी गति ली न जाइ । करहु क्रिया भ्रभु चूकईमैं सुमति देहु समझाइ ।२॥ जोगीसर पावह नहीं, तुम गुण कथन अपार । प्रेम भगति के कारण, कटु रविदास वर्माार ३॥ बादिरादाबुर, मेंढक । में =मुमैं । तां जन (२२) कहा भईओ जठ ततू भइयो छिद्र छिद्र । प्रेम जाइ तह डरएं तेरो ज ॥१। तुझहि चरन अर्राबंद भवन मनु । पान करत पाइओ पाइओ रामईआ व ॥हाड। संपति विपत पटल साइना बन । तामहि समन होत न तेरो ज ॥२। प्रेमजी जवरी वाशि तेरो जन से कहि रविदास यूटिवो कवन गुन 1३। भवन=मेंबर। पहल=अबरण। गुन=योग्यता के द्वारा है नाम महत्व (२३) सुख सागर सुरतर चितामनि कामधेनु बसि जाके । चारि पदारय असट बसा सिधि, नवनिघि करतल ताके १॥