पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२३७

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२२४ संकाव्य दन्यभाष (२६) नाथ कबू आन न जानउ में मनु माइआ के हाथ बिकानड।रहाउ!t तुम कहीअत है जगतगुर सुआमसी । हम कहीनत कलि जुग कामी 1१। इन पंचन मेरे मनु विगाडि यंतु पत्रु हरिजो के अंतर पारिड १२। जल देवषड तत दुख की राखी । अर्जे न पस्याइ निगम भए साथी है। 'गोतम रारि उमापति स्वासी। सीखू धर िसंहस भगगामी १४१५ इन दूतम घलु घx करि मारिड । वडो निलालू आजहू नहीं हैरिड ।५)। कहि रविदास कहा जैसे फीलै । बिनु रघुनाथ सरनि काकी लीजै ।६है। पंचन पांचों शत्रुओं ने। गोतम नागरि =अहल्या जिसके साथ इंद्र में झुलसे भोग किया था। चेतावनी (२७) जो दिन अवहि सो दिम जाही करना कूचू रहतु स्थिरु नाही । संशु चलत है हमभी चलना, उरि शैक्नु तिर अपरिसरना 1१॥ किया ह सोइया जाg इआना । है जोवलू जरि सुचु कर जाना न रहा। जिन जीड दोआ सु रिज अंबराथसभ घट भीतरि हाहु चलाये । करि बंदिगी छईि में , हिंदे ना संभारि सबेरा ।२५ उन , सिराने पंधु न संजरा सांझ परी बह दिति अंधियारा । कह रविकास निदानि दिवानेचेतसि नाही इनोवा फन खाने १३३१५ रिजक अपराधे-रोजी का इंतिजाम करता है । सवारी संभाला। कहि...घाने =दासजी कहते हैं कि दू नितांत भू है तुझे सांसारिकता की हानि समझ में नहीं आती। (२८) बारितु देषि सभको हंसऔसी बसा हमारी । असठ ‘दस सिधि करतलैंसंभ त्रिपा तुम्हारी क१।" न जामत में किछ नहीं भेज चंडर राम । . ए?