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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२४५

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२. मध्य युग ( ) { सं०० १५५०-सं ०१७०० ? सामान्य पारचय ब्बीर साहब तथा उनके समसामयिक संतों के समय तक संतमत के किसी संगठित प्रचार कार्य का पता नहीं चलता । प्रत्येक संत अपने अनुभव की वालों को देशाटन एवं सत्संग के ही द्वारा यत्रतत्र प्रकट कर दिया करता था1 उसकी बनियों से प्रभावित होकर वहत से व्यक्ति उसके संपर्क में रहने लगते थे और उसे गुरुवत् मानकर उससे उपदेश भी ग्रहण करते थे । ऐसे लोग उसकी वानियों को बहुधा लिख वा। कंठस्थ भी कर लिया करते थे और इस प्रकार उनका संग्रह भी। होता रहता था। किसी संत के किसी व्यक्ति को विधिवत् दीक्षा प्रदान करने अथवा उसे अपने पीछे का उत्तराधिकारी बनाकर अपने मत का प्रचार करने के लिए आदेश दे जाने आदि का कोई विवरण आज तक उपलब्ध नहीं । उस समय के संतों के नामों पर जो विविध पंथ व संप्रदाय चलते हुए दील पड़ते हैं उनमें से किसी का भी इतिहास उस कल तक जाता नहीं जान पड़ता । कबीर साहब के समय संतमत का प्रबान केंद्र काशी क्षेत्र हो रहा था और वहीं से प्रेरणा पाकर उसका प्रचार अन्यत्र होना भी संभव था । परंतु गुरु नानक देव (सं १५२६-१५९५) के समय से उसका एक अन्य प्रमुख केंद्र पंजाब प्रांत भी हो गया जहाँ से उसका प्रचार कार्य सिखधर्म के अनुयायियों द्वारा सुव्यवस्थित रूप से चलने लगा। फिर तो गुरु नानक देव की ही भांति राजस्थान प्रांत में दादूदयाल एवं हरिदास ने ऋमनर: दादूपंथ और निरंजनी संप्रदाय को प्रवर्तित वा सुसंगठित